Saturday 20 August 2011

Sunderkand Bhajan सुन्दरकाण्ड भजन

सुन्दरकाण्ड भजन
तर्ज :- तेरे जैसा राम भक्त कोई हुआ न होगा मतवाला..........

सुन्दरकाण्ड है अति मनभावन, सुन्दर इसका दर्शन है ।
ज्ञान कर्म और भक्ति का,    यह त्रिवेणी संगम है ॥

परिवार हो तो राम जैसा, यह रामायण समझाती है ।
मानव जीवन की मर्यादा,     रामजी को भाती है ॥
हनुमान भी मर्यादा का, पालन सदैव करते हैं..............1

नित्य मात-पिता और गुरुजनों को, राम वन्दन करते हैं ।
सबको प्रणाम करके हनुमत,    सीता खोज को चलते हैं ॥
यह कहि नाई सबन्हि कहुँ माथा, आशीष ले उडान भरते हैं.....2

प्रभु को हृदय में धारण करके, यदि काम कोई हम करते हैं ।
असंभव भी संभव हो जाता,   यह हनुमान कर दिखलाते हैं ॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई, और अग्नि शीतल हो जाती है....3

कृतज्ञता जीवन में लावो,     यह राम हमें समझाते हैं ।
प्रति उपकार करौं का तोरा,   कह राम ऋणी हो जाते हैं ॥
कृतज्ञता की षिक्षा हमको,    सुन्दरकाण्ड से लेनी है...........4

काम करके भी अलिप्त रहना,  अभिमान का कभी स्पर्ष न हो ।
कर्मसु कौशलम् की कुशलता,    श्री हनुमानजी के जैसी हो ॥
सो सब तव प्रताप रघुराई,    यह हनुमानजी का दर्शन है..........5

प्रभु की भक्ति करनी हो तो, आधार प्रेम को करना है ।
रामहि केवल प्रेम पियारा, यह गोस्वामीजी का कहना है ॥
निर्मल मन जन सो मोहि पावा, यह रामजी भी कहते हैं ......6

पाठ से पुण्य मिलेगा यदि,     इतना ही समझ पावोगे ।
रामायण के रचनाकार का,      हेतु निष्फल कर दोगे ॥
आगे पाठ फिर सपाट बनकर, जीवन व्यर्थ गँवावोगे...........7


सुन्दरकाण्ड का चिंतन करके, जीवन को सुन्दर बनाना है ।
सद्गुणों को धारण करके,   जीवन को सफल बनाना है ॥
सुन्दरकाण्ड से षिक्षा लेकर, प्रभु का प्रिय हो जाना है...........8
सुन्दरकाण्ड है अति मनभावन..............

सुन्दरकाण्ड है अति मनभावन, सुन्दर इसका दर्शन है ।
ज्ञान कर्म और भक्ति का,    यह त्रिवेणी संगम है ॥
रामायण तो सुन्दर है ही परन्तु उसमें भी सुन्दरकाण्ड अति सुन्दर एवं मनभावन है इसीलिए तो सुन्दरकाण्ड का पारायण अधिकतर लोग करते हैं । सुन्दरकाण्ड में भक्त श्रेष्ठ श्री हनुमानजी की लीला का वर्णन है इसीलिए तो इस काण्ड का नाम सुन्दरकाण्ड रखा गया है । भगवान राम को भक्त का काम सुन्दर लगा, कर्तृत्व शक्ति सुन्दर लगी, उनकी दौड धूपए बुध्दिमत्ता इत्यादि सब सुन्दर लगी इसीलिए इस काण्ड का नाम सुन्दरकाण्ड रखा गया है।                   
सुन्दरकाण्ड में श्री हनुमानजी की सुन्दर लीला का वर्णन तो है ही साथ ही साथ उसमें राजनीति, ज्ञान, कर्म और भक्ति इत्यादि का सुन्दर दर्शन है। भक्त कैसा होना चाहिए? वह ज्ञान भक्ति और कर्म युक्त होना चाहिए । उसके जीवन मे ज्ञान भक्ति और कर्म का समन्वय होना चाहिए। हनुमानजी का जीवन-ज्ञान भक्ति और कर्म युक्त है, इन तीनो बातोंका समन्वय उनके जीवन मेंे दिखाई देता है उसका दर्शन सुन्दरकाण्ड में है ।  रामायण एवं सुन्दरकाण्ड से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। हम लोग रात-दिन सुन्दरकाण्ड का पारायण तो करते हैं परन्तु उसमें प्रतिपादित सुन्दर बातों का चिन्तन मनन नहीं करते तथा उसमें वर्णित आदर्श गुणों को उठाने का प्रयास नहीं करते इसलिए हमारे जीवन में कोई परिवर्तन नहीं होता है । हम जैसे थे वैसे ही रह जाते हैं । हम जिसका पारायण करते हैं उसमें वर्णित दैवी गुणों से सम्पन्न व्यक्तियों के जीवन का अध्ययन कर उनके दिव्य गुणों को अपने जीवन में लाने का प्रयत्न करना चाहिए तभी हमारे जीवन में परिवर्तन होगा, हमारी दृष्टि बदलेगी, वृत्ति बदलेगी तथा जीवन भव्य व दिव्य बनेगा । सुन्दरकाण्ड में वैसे तो अनेक बातों का उल्लेख है जिन्हे अपने जीवन में उतारकर हम हमारे जीवन को सुन्दर बना सकते है । इसी बात को सन्मुख रखते हुए मैने सुन्दरकाण्ड में वर्णित चौपाईयों के आधार पर दो-चार महत्वपूर्ण बातों को एक भजन के माध्यम से रखने का प्रयास किया है । जिससे हमको उन चौपाईयों में प्रतिपादित भावों को समझकर उन गुणों को जीवन में उतारने की प्रेरणा मिले, जिससे हमारे जीवन को एक आकार मिले, उसमें सुन्दरता आए जिससे हम भक्ति पथ पर आगे बढते हुए प्रभु के प्रिय बन सकें ।                         
हमको यदि हनुमानजी की उपासना करनी है तो हमको हमारे जीवन में उनके अनंत गुणों में से एकाध गुण तो जीवन में लाने का प्रामाणिक प्रयत्न करना चाहिए । तथा हनुमानजी की तरह ज्ञान-भक्ति और कर्म का समन्वय जीवन में साधना होगा तो ही हम उनकी तरह प्रभु प्रिय बन सकेंगे तथा सच्चे अर्थ में हम हनुमानजी के उपासक हैं ऐसा कहा जाएगा । इस जगत में केवल भक्त दुर्बल है, ज्ञानी रुखा और कर्मकाण्डी शुष्क है । ज्ञानेश्वर महाराज कहते है: 'ज्ञानियांच्या घरी भक्तिचा दुष्काळ' ज्ञानी के घर में भक्ति का अकाल होता है । मात्र कर्मकाण्डी शुष्क होता है केवल स्वाहा करनेवाला ही कर्मकाण्डी नहीं है । आज जगत का समस्त शिक्षित वर्ग कर्मकाण्डी है । उसे कहो कि एक घंटा गीता सुनने चलो तो वह तुरंत कहेगा कि यह शक्ति और समय का अपव्यय है । इसके बजाय एक घंटे लोगों में फिर कर चंदा एकत्र कर के गरीबों को सहायता करेंगे तो कितना लाभ है! आज सौलिसिटर, वकील, डॉक्टर आदि की विचारधारा ही कर्मकाण्डी है । भाव, भक्ति, ज्ञान, समझ इत्यादी का महत्व उनके ध्यान में नही आता । ये कर्मकाण्डी नीरस-शुष्क है।                           
जिनके जीवन मे ज्ञान, भक्ति और कर्म का त्रिवेणी संगम होता है, उनको हम ज्ञानी भक्त कहकर पूजते हैं, ऐसे ज्ञानी भक्त श्री हनुमानजी हैं । गीता मे वर्णित मानव कर्म, भक्ति और ज्ञान की त्रिवेणी स्वरुप होता है । उसका अंत:करण भाव भक्ति से पूर्ण होता है । उसका हृदय और बुध्दि ज्ञान से परिपूर्ण होते हैं । वह सतत निरपेक्ष और निराकांक्ष रहकर कर्मयोग करता रहता है । भगवान के उपर उसका शतप्रतिशत नहीं, एक सौ एक प्रतिशत विश्वास होता है। ऐसे उन्नत मानव श्री हनुमानजी है।ये महापुरुष भगवान को अति प्रिय लगते हैं ।      
संतो के जीवन में ज्ञान, भक्ति और कर्मयोग की त्रिवेणी होती है, इसीलिए उनके श्वासोच्छवास् भी पवित्र हैं । हम संतो को महान मानते हैं । हनुमानजी के जीवन में यह सब बातें देखने को मिलती है । हमे भी यदि हनुमानजी की तरह प्रभु के प्रिय तथा श्रेष्ठ बनना हों तो जीवन में ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय लाना होगा। सचमुच सृष्टि में आकर जो लोग सृष्टि की शोभा रुप बन गये हैं वे ही सच्चे भक्त है, मानव है । बाकी हम सब तो ऐन्द्रिय सुख के पीछे दौडने वाले पशु ही हैं । समाज में कितने ही लोग केवल काम ही करते रहते हैं, वहाँ न भक्ति का ठिकाना होता है, न ज्ञान का पता ।  कितने ही केवल भजन ही गाते रहते हैं, उनमें ज्ञान नहीं होता और कुछ काम नहीं करते । 'श्रीराम जय राम जय जय राम' बोलना, माला फेरना, पर कुछ करना नहीं, इतनी ही भक्ति के संबंध में उनकी कल्पना है ।  वैदिक दृष्टि में वह भक्ति नहीं है, उपासना है ।  भक्ति और उपासना में जो फर्क है वही ये लोग नहीं जानते ।  कितने ही लोग केवल ज्ञानी होते हैं ।  हमको कुछ करना नहीं है, केवल ब्रम्ह की चर्चा ।  सेवा, पूजा करने की क्या आवश्यकता है? अत: जिसमें कर्म, ज्ञान और भक्ति पूर्णतया एकत्रित हुए है वह संत है ।  ये तीनों बाते श्री हनुमानजी की तरह हमें अपने जीवन में लाने का प्रयत्न करना चाहिये ।                  
पूर्णज्ञान, पूर्णभक्ति ओर निरन्तर कर्मयोग जीवन में होने चाहिए ।  अनेकों को लगता है कि कर्म करने से वासनाएँ बढती है, वासनाओं के बढने से ही कर्म संग्रह होने लगता है ।  आनेवाले जन्म में ये कर्म भोगने पडेंगे, अत: कर्म न करना ही अच्छा है। ऐसा निर्णय करके वे कुछ कर्म करते ही नहीं ।  कुछ लोग कर्म में ही इतने मग्न हो जाते हैं कि ज्ञान का ठिकाना ही नहीं होता ।  गीता में ज्ञान, भक्ति और कर्म इनका त्रिवेणीसंगम समझाया है।आज के समय मे इस प्रभु कार्य की आवश्यकता नही है इसलिये वह योग्य नहीं है, ऐसा कहनेवाले लोग होंगे फिर भी मै विचलित नही हूँगा। विश्वके विरोध में खडे रहने की हिम्मत मनुष्य में होनी चाहिये। प्रभु का काम करना यह आलसियों का काम नहीं है ।  आलसी व्यक्ति के सामने लकडी आडी रखी तो वह दूसरी ओर से चलने लगता है, पीछे रखी तो आगे चलने लगता है ।  इस प्रकार के लोगों को किसी का प्रमाण नहीे मानना होता है, परम्परा का स्वीकार करना नहीं होता, किसी के अनुभव से ज्ञान लेना नहीं होता और अपनी अक्ल भी नहीं चलानी है । ये सब प्रवाहपतित कुछ भी नही कर सकेंगे ।                                            कर्म भक्ति और ज्ञान जो जानता होगा वह संत है ।  विश्व में व्याप्त जो चैतन्यशक्ति (न्दपअमतेंस चवूमत) है उसका ही नाम ब्रम्ह है ।  वह शक्ति जब क्रियात्मक बनती है, तब उसको ब्रम्ह कहते हैं, प्रेमात्मक होती है तब उसको विष्णु कहते हैं, जब वह शक्ति ज्ञानात्मक होती है तब उसको शिव कहते हैं ।  शक्ति तो एक ही है ।  इन तीनों को जो जानता है वह ऋषि है ।  जो कृतात्मा है, जिसके जीवन में साफल्य है, किसी प्रकार की बैचेनी नहीं है, आत्मविश्वासपूर्ण जीवन जिसका होता है वह ऋषि।  उसी प्रकार जिसको विषय नहीं हिलाते इतना प्रशांत होता है वह ऋषि । 'क्या मिलेगा?  इस वासना से जो नहीं चलता वह ऋषि! हमें तो पैसा अथवा कीर्ति या पूण्य चलाता है, हम स्वयं नहीं चलते हैं ।  जिस दिन हम स्वयं चलने लगेंगे, उस दिन प्रशान्तात्मा बन जायेंगे । जिसके इंद्रियाँ, मन और बुध्दि ईश्वरीय कार्य के लिये दौडते रहते है वह ऋषि ।  परन्तु, यह ईश्वरीय कार्य यानी क्या है? ईश्वरीय कार्य यानी 'ईशावास्य मिदं सर्वं' समझकर, जगत में निर्माण हुई आत्माकी विस्मृति और ईशश्रध्दा का अभाव ये दो दुर्गुण जहाँ जहाँ होंगे, वहाँ से उनको हटाने का प्रयत्न करना! आत्मस्मृति और ईश विश्वास फिर से खडा करना ।  मुझे अपनी स्वयं की स्मृति चाहिये और मेरा अपने निर्माता पर विश्वास चाहिये ।  ये दो बाते जीवन में दृढ होगी तो ईश्वर तक पहुँचने में मुझे कोई रोक नहीं सकेगा ।  इसलिये ये दो बातें समाज में जो दृढ करने के प्रयत्न करते रहते हैं वे ऋषि, यही ईष्वरीय कार्य है ।  ऋषि लोगों का जन्मजन्मांतर का हित देखता है ।  ऐसे ऋषि स्वाध्याय कराते हैं, उसके लिए ज्ञान की प्याऊ के पास जल पीना होता है ।     स्वाध्याय केन्द्र ज्ञान की प्याऊ है। ज्ञान के लिए स्वाध्याय केन्द्र में जाने से जीवन में नियमितता और विनम्रता आती है ।  इसलिये हमारे ऋषियों ने महामंत्र दिया, 'स्वाध्याय प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम््।' धर्मजिज्ञासा,  ब्रम्हजिज्ञासा और आत्मजिज्ञासा के लिये मन की भिन्न-भिन्न बातें मनुष्य जान लेगा तो अध्यात्म में आत्मिक आनन्दतक वह जा सकता है ।  श्रीमद् आद्यषंकराचार्य कहते हैं, 'ज्ञान विहिन सर्व मतेन मुक्तिं न भजती जन्म शतेन।' यह मेरी माँ है जब तक यह ज्ञान नहीं होता तब तक उस पर प्रेम कैसे होगा? वकैसे बढेगा? जब तक प्रेम नहीं बढता है तब तक भक्ति कैसे होगी? वैसे ही प्रेम और ज्ञान न हों तो उसके लिए कर्म कैसे हो सकते हैं?                       
पं रामकिंकरजी का कहना है कि महर्षि वाल्मीकि एवं तुलसीदासजी दोनों ने भी श्रीराम का वर्णन दोनों रुपों में किया है। श्रीराम को अगर आप केवल ईष्वर मानेगे, मनुष्य नहीं स्वीकार करेंगे तो जीवन में उनके चरित्र से षिक्षा ग्रहण नहीं करेंगे। और दूसरी ओर अगर आप उनको मात्र मनुष्य ही मान लेंगे, ईष्वर नहीं मानेगे तो फिर समस्या यह है कि मनुष्यों के तो अगणित चरित्र इतिहास में विद्यमान हैं ही, परन्तु हमें तो ऐसे पात्र की आवष्यकता है कि जो इतना शक्तिमान हो कि अपने चरित्र को जीवन में उतारने की शक्ति भी हमें दे सके। श्रीराम को यदि केवल मनुष्य मानेंगे, तब तो यह केवल  भूतकाल के पात्र होंगे। किन्तु भई होना यह चाहिए कि हम और आप दोहरा लाभ प्राप्त करने कि चेष्टा करें। इसका उपाय यही है कि श्रीराम के ईष्वरत्व से शक्ति लीजिए तथा मनुष्यत्व से प्रेरणा लीजिए।      सुन्दरकाण्ड का पाठ करते समय हमको इन्ही बातों को ध्यान में रखकर उनका सतत चिन्तन मनन करते हुए उसमें प्रतिपादित चरित्रों के दिव्य गुणों को आत्मसात कर जीवन को एक मोड देने का प्रयास करते हुए इस जीवन को श्री हनुमानजी की तरह सुन्दर बनाने की पेरणा प्राप्त हो। इसी दिव्य हेतु से मैने इस गीत की रचना की है । मैने इसमें दो-चार बातों का ही उल्लेख किया है जो बातें हमारे जीवन विकास के लिए अत्येत उपयोगी है । जिनको जीवन में उताकर हम भक्ति पथ पर आगे बढते हुए प्रभु प्रिय हो सकते हैं।  कर्मयोगी का हाथ, ज्ञानी की ऑंख और भक्त का हृदय इन तीनों के समन्वय से त्रिवेणी संगम होता है । ऐसा त्रिवेणी संगम श्री हनुमानजी में है और हमको श्री हनुमानजी से इस त्रिवेणी संगम को अपने जीवन में लाने की प्रेरण्ाा व षिक्षा लेनी चाहिए ।
परिवार हो तो राम जैसा, यह रामायण समझाती है ।
मानव जीवन की मर्यादा, रामजी को भाती है ॥
हनुमान भी मर्यादा का, पालन सदैव करते हैं..............1
रामायण भारत का एक सांस्कृतिक ग्रंथ है । लोगों के मार्गदर्शन के हेतु लिखा गया ग्रंथ है । राम का वर्णन एक आदर्श पुरुष का वर्णन है । राम वास्तव में कर्तव्य एवं पौरुष के प्रतीक तथा मानव जीवन की मर्यादा के पारिवारिक आदर्श है । हम लोग वर्षों से रामायण पढते आए हैं परन्तु राम के गुण भगवान के गुण है ऐसा समझकर उनका अनुकरण असंभव सा जानकर छोड देते हैं । वास्तव में देखा जाय तो इन गुणों को आत्मसात करें, जीवन में उतारें इसी हेतु से रामचरित का निरुपण हुआ है । श्री राम मर्यादा पुरुषोत्तम है, तथा वे सदैव मर्यादा का पालन भी करते हैं और श्रीराम की तरह श्री हनुमानजी भी मर्यादा का पालन सदैव करते हैं। हम यदि उनके उपासक हैं तो हमको भी सदैव मर्यादा का पालन करना चाहिए ।
जगत के सर्वोच्च एवं महान गुणों का समन्वय ही राम चरित्र है । राम हम सब के सामने एक कौटुंबिक आदर्श रखकर गये हैं । राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न चार भाई थे परन्तु उनके बीच कभी झगडा हुआ ऐसा कहीं भी रामायण में वर्णन नहीं है । क्योंकि उनका एक जीवन मंत्र था वे त्याग में आगे और भोग में पीछे थे । जहाँ हमेषा दूसरों का विचार किया जाता है, त्याग करने की तत्परता होती है वहाँ षुध्द निर्मल प्रेम का वास होता है । श्री राम की तरह हमको भी यह सुत्र जीवन में लाने का पंयत्न करना चाहिए तथा जीवन को एक विषिष्ट आकार देकर मर्यादा का पालन करना चाहिए । जीवन को विषिष्ट आकार देना चाहिए तभी जीवन सुन्दर बनेगा । केवल सुन्दरकाण्ड का पारायण करने से क्या होगा? पारायण करना चाहिए उसकी ना नहीं है परन्तु उसमें निहित सुन्दर बातों का चिन्तन करते हुए जीवन को आकार देने का प्रयत्न करना चाहिए तभी श्री हनुमानजी की तरह हमारा आपका जीवन भी सुन्दर बनेगा ।
सुन्दरता कब आती है? उसे एक आकार चाहिए। शरीर का आकार व्यवस्थित रहने के लिए कितने ही लोग खाने से परहेज (Dieting) करते है। छाती से पेट बडा हो तो नहीं चलता। पेट छाती से छोटा होना चाहिए। उसके लिए सभी के प्रयत्न चलते है। मर्यादा छूट गयी तो आकार बेढंगा बनता है। प्रत्येक व्यक्ति का उदर भगवान ने सुन्दर बनाया है। परन्तु उसमें विकृति आयी और वह बढने लगा तो डाँक्टर भी कहते हैं भाई! पेट फूलने लगा है। तबियत सँभालना, कसरत करो, घुमने जाओ, प्राणायाम करो पेट बडा नहीं होना चाहिए। उसी प्रकार मन बुध्दि के लिए भी लक्ष्मण्ा रेखा (मर्यादा) होनी चाहिए। यदि मन उसका उल्लंगन करें तो बुध्दि को नहीं चलाना चाहिए। परन्तु आज तो बुध्दि को जो निर्णय करने चाहिए वे निर्णय मन करता है और मन बुध्दि पर चढ बैठता है। हम लोग मनजीभाई जैसे बनकर मन को नहीं समझा सकते। मन मर्यादा छोडकर दौडता जाता है। इसी कारण भगवान ने गीता मे 'अघायु इंद्रियाराम:' कहा है। एक तो मन बुध्दि से बढचढ कर हुकूमत चलाता है इसलिए बुध्दि भी वैसा ही चलने लगती है।  मन की बुध्दि गुलाम होती है उसमें सौंदर्य नहीं होता। ऐसी गुलाम बुध्दि सुन्दर नहीं लगती। उसमें सौंदर्य नहीं होता ।          
हमारे जीवन में बुध्दि इंग्लैन्ड के बादशहा के समान है। संसद (पार्लयामेन्ट) जो प्रस्ताव पारित करे उस पर बादशहा हस्ताक्षर करता है। उसके सिवा उसके पास दूसरा पर्याय ही नहीं है। हमारे जीवन में मन जो प्रस्ताव पारित करता है उस पर बुध्दि को हस्ताक्षर करना ही पडता है। कोई सुबह देर से उठा और कोई उससे पूछे 'क्यो भाई! देर से उठे? तो वह कहता है- देर से उठना चाहिए यह भगवान को भी मान्य है। उजाला हुए बिना उठना भगवान को मान्य नहीं है। नहीं तो भगवान सूर्योदय जल्दी नहीं करते? इस प्रकार मन बुध्दि पर चढकर बुध्दि को गुलाम बनाता है। बुध्दि सब कुछ बोलती है मगर आलस्य से भरी मन की गुलाम बनी बुध्दि बोलती है। निर्णय करने का काम बुध्दि का है। बुध्दि से उपर मन जाए तो योग्य आकार नहीं होता। जो लोग मन और बुध्दी को विषिष्ट आकार में रखते है उनका सौंदर्य बढता है। ऐसी बुध्दि चाहिए जो मन को लक्ष्मण रेखा को भी न लांघने दे।   मन का काम विक्रेता (Salesman) के सरीखा है। प्रत्येक वस्तु अच्छी है ऐसा वह कहता है। इसकी बुनावट अच्छी है। यह टिकाऊ है। इसका मुल्य अधिक है। इसका रंग पक्का है। कभी फिका नहीं पडेगा। इस समय इसी का फैशन चल रहा है। आदि आदि। खराब कुछ है ही नहीं। प्रत्येक कपडा अच्छा। परन्तु कौनसा कपडा लेना कितना लेना लाभ किसमें है, जेब में पैसे है या नही? आदि देखकर निर्णय लेना यह ग्राहक का काम है। Salesman का नहीं । अत: बुध्दि के स्थान पर मन स्वयं निर्णय करता है। तब मन ने मर्यादा का त्याग किया है ऐसा कहते है। जिसके जीवन में ऐसा होता है उसका जीवन स्थिर नहीं है या सुन्दर नहीं है। मन नहीं लगता है इसलिए नहीं करते यह ठीक नहीं है। मन नहीं लगा फिर भी करना चाहिए। ऐसी मन को आदत लगानी चाहिए। आज तो इंद्रियाँ मन से कहती है और मन बुध्दि को निर्णय लेने को बाध्य करता है।       
उसी प्रकार जो बुध्दि में उतरता है उसे स्वीकार करने कि हिम्मत और शक्ति होनी चाहिए। मन के कहने के अनुसार दौडने की अपेक्षा बुध्दि में ही स्वतंत्र निर्णय लेने कि शक्ति होनी चाहिए। ऐसी बुध्दि जिनकी नहीं होती उसका जीवन नष्ट हो जाता है। सर्कस मे सिंह को 'राजा' कहकर बुलाते हैं। खेल करते समय सुलगे हुए चक्रमे से निकालने के लिए हाथ में चाबूक लिया हुआ रिंग मास्टर हूक्म करता है 'राजा' इस चØ मे से निकल जाओ! तुरन्त छलाँग लगाकर राजा चØ के बीच में से निकल जाता है।  अरे! तू राजा है और तुझे दूसरा कोई हुक्म करता है? राजा हुक्म करता है या हुक्म का पालन करता है? हमारी बुध्दि का भी ऐसा ही हुआ है।                       
बुध्दि की भी कोई मर्यादा है। और उसे पहचानना आना चाहिए। तथाकथित पढे हुए लोग कहेंगे कि 'भगवान  है ही ऐसा हमारी बुध्दि में उतरा तभी हम मानेंगे। 'परन्तु जिसने तुम्हारी बुध्दि निर्माण की वह तुम्हारी बुध्दि में कैसे उतरेगा? फिर भी उसका अस्तित्व है ही। जगत में ऐसी कितनी ही बातें हैं जिनके बुध्दि में न उतरने पर भी उन्हे मानना पडता है। 'Rice is boiled in paper box’ यह नहीं मान सकेंगे ऐसी बात है। फिर भी वह हकीकत है। बहने कहेंगी कि कागज की पेटी चुल्हे पर रखने से जल जाएगी परन्तु वह सत्य नहीं है। अपनी बुध्दि में नहीं उतरता ऐसी अनेक बातों का जगत में अस्तित्व है। मर्यादा छोडकर चलने वाली बुध्दि को षोभा नहीं है। हम कीर्ति या वित्त के लिए दौडनेवाले होने से बुध्दिवादी या बुध्दिजीवी हैं। वास्तव में जीवन बुध्दीनिष्ठ बनना चाहिए। बुध्दि में उतरने के बाद उसके अनुसार जो करता है उसे बुध्दीनिष्ठ कहते हैं।                             हम नित्य सुन्दरकाण्ड का पारायण करते हैं। उसमें ज्वलंत विचार है परन्तु उन सुन्दर विचारों को हम उठाना ही नहीं चाहते है। हम पढते हैं परन्तु उन विचारों को समझने का प्रयत्न ही नहीं करते। इसलिए हमारा मन बुध्दि व जीवन को आकार नहीं आता । हम तो मनौति करके भगवान से भी कहते हैं कि 'इतनी वस्तूएँ प्रथम दो, फिर सत्यनारायण कि पूजा करुँगा, अथवा यात्रा में आऊँगा। इसका अर्थ ही यह है कि हमारा कल्याण किसमे है यह समझने कि अक्ल हममें है। मनौति शब्द का अर्थ ही यह होता है कि 'प्रथम दो, बादमें देखूँगा। भगवान पर विष्वास करने की तैयारी ही नहीं। मनौति का सरल अर्थ यह हुआ कि 'आप पर विष्वास करने योग्य आप नहीं है।' पहले आप कुछ देंगे तो फिर मैं कुछ करुँगा। परन्तु मैं प्रभु का काम करुँगा तो उन्हे दिए बिना छुटकारा ही नहीं। इतना विष्वास हमारा नहीं है। सुदामा प्रभु का काम करते थे। वे भगवान के पास मिलने गये उन्होने उनसे कुछ माँगा नहीं फिर भी भगवान ने उन्हे संपूर्ण ऐष्वर्य प्रदान किया। भगवान भी कर्मरुपी पैसा पहले लेते हैं और बादमें उसके अनुसार फल देते है। वे इतने होषियार हैं इसका हमें पता नहीं है।               उपभोगाें के लिए भी मर्यादा होनी चाहिए तभी सुन्दरता आती है। विषयों की ओर झुकनेवाली बुध्दि का 'स्व' चला जाता है और षोभा भी चली जाती है। स्त्री और पुरुष दोनों को भी मर्यादा है। ये दोनों जब मर्यादा छोड देते है तब समाज नष्ट हो जाता है। दोनाें अपनी अपनी मर्यादा समझते हैं तभी दाम्पत्य जीवन सुखी होता है। संसार सुन्दर बनता है और खिलता है। जहाँ Special form है मर्यादा है वही सुन्दरता है। मर्यादा छोडकर बोलने चलने में मजा नहीं है।      
सागर भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता। इसीलिए तो 'दर्यालाल कि जय' कहकर उसका पूजन होता है। आज के धनवान लोग तीस तीस मंजिलवाले भवन सागर के किनारे बनाते हैं इसका कारण समुद्र मर्यादा नहीं छोडता यह है ।  भगवान राम को हम मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं क्योंकि वे मर्यादा का पालन करते हैं। श्री हनुमानजी भी अपनी मर्यादा का पालन करते हैं उसी प्रकार हम भी मर्यादा का पालन करते हुए मन व बुध्दि को भी मर्यादा में रखेंगे तभी उनकी षोभा है। अन्यथा वे जीवन बिगाड देते हैं। हमारा सौंदर्य श्री हनुमानजी के जैसा आकर्षक होगा तभी हम भगवान को आकर्षित कर सकते हैं।
नित्य मात-पिता और गुरुजनों को, राम वन्दन करते हैं ।
सबको प्रणाम करके हनुमत, सीता खोज को चलते हैं ॥
यह कहि नाई सबन्हि कहुँ माथा, आशीष ले उडान भरते हैं.....2

     श्रीराम नित्य माता-पिता और गुरुजनोें को प्रणाम करके आषीर्वाद प्राप्त करते थे । प्रभु रामचंद्र के जीवन में बहुत सी बातें समझाने के लिए ही है । प्रभु रामचंद्र का स्मरण करते ही एक बात ध्यान में आती है वह है स्वार्थत्याग! दूसरी बात शब्दपालन, तीसरी बात भाईयों पर प्रेम चौथी बात पती पत्नीपर प्रेम भाव जो पारिवारिक जीवन में आवश्यक है । पांचवी बात सद्विचारों को प्रोत्साहन, छठी बात है दुष्ट वृत्तिका दमन, और सातवी बात तपस्वी जीवन। ये सभी बाते भगवान राम के जीवन में देखने को मिलती है ।
रामायण पढते हो और पिता के चरण नही छूते? रामायण पढते हो और भाई-भाई का प्रेम संबंध नही रखते?  पढकर अथवा सुनकर नमस्कार करने जैसा यह ग्रंथ नही है, परन्तु जीवन में महान तत्त्वों को उतारने के लिए यह ग्रंथ है। आज रामकी भाँति पितृ प्रेम, भ्रातृ प्रेम इत्यादि के लिए प्रयत्न ही नहीं करते और उपर से कहते हैं, 'राम ने यह सब किया, क्योंकि राम भगवान थे' और अपना पीछा छुडा लेते हैं ।
     मानवमात्र को प्रभु रामचंद्र के जीवन से उनके इन अलौकिक गुणों को उठाना चाहिए । मनुष्य को राम की भाँति एक आदर्श पुरुष बनने का प्रयत्न करना चाहिए । जीवन में केवल राम-राम रटने से नहीं चलता राम के आदर्श गुणों का जीवन में बीजारोपण करना चाहिए । दैवी गुणों से संपन्न व्यक्तियों के जीवन का अध्ययन करके उनके उन दिव्य गुणों को जीवन में लाने का प्रयत्न करना चाहिए ।
रामायण में चित्रित भगवान राम का चरित्र मर्यादा पुरूषोतम का है। उसी मर्यादा का पालन श्री हनुमानजी भी करते हैं। सुंदरकाण्ड के प्रारंभ में ही जांबवन्त जी से प्रेरणा प्राप्त कर जब श्री हनुमानजी लंका के प्रस्थान करने के लिए तैयार होते हैं तो सर्वप्रथम सभी को नमस्कार करते हैं यह विशेष ध्यान देने योग्य बात है । किसी कार्य हेतु प्रस्थान करते समय बडोंका आषीर्वाद लेना चाहिए । इसीकारण श्री हनुमानजी भी वही क्रम निरूपित करते हैं 'यह कहि नाइ सबन्हि कहुँ माथा।' इस प्रकार सभी को प्रणाम करके व आषीर्वाद प्राप्त करके तथा हर्ष के साथ श्री रघुनाथजी का हृदय में ध्यान करते हुए आगे बढते हैं ।
     समाज में इस बात की मर्यादा रखनी आवष्यक हैं कि जो कार्य समाज हित हेतु करने का निष्चय किया गया हो, उसे पहले करना चाहिए इस तथ्य का श्री हनुमानजी निर्वाह करते हुए कहते हैं कि 'राम काज करि फिरि मैं आवौं।' कार्य आरंभ करने से पूर्व बडों से आषीर्वाद लेने तथा जो कार्य आरंभ कर दिया है उसे पहले पूर्ण करने का स्पष्ट संकेत दिया हैं तथा आगे मैनाक पर्वत को प्रणाम करते हुए कहते हैं कि, 'राम काज कीन्हे बिनु मोहिं कहाँ विश्राम।' यह बात हमें इस बात की ओर संकेत करती है कि हमको भी यदि कोई कार्य सिध्द करना हो तो अविरत प्रयत्न चालू रखना चाहिए उसमें विश्राम नहीं करना चाहिए तो ही कार्यसिध्द हो सकता है ।
     श्री हनुमानजी लंका के लिए जब प्रस्थान करते हैं उसका वर्णन करते हुए गोस्वामीजी लिखते हैं कि श्री हनुमानजी भगवान राम के अमोघ बाण की तरह लंका से उडान भरते हैं यथा- 'जिमि अमोघ रघुपति कर बाणा । एहि भाँति चलेउ हनुमाना ॥' जैसे भगवान राम का बाण अमोघ है जबतक उसका कार्य पूर्ण नहीं होता तबतक वह वापीस नहीं आता । उसी प्रकार श्री हनुमानजी सीता सुधि के लिए प्रस्थान करते हैं और अपना सौंपा हुआ कार्य पूर्ण करने पर ही लौट कर आते हैं। इसप्रकार साधकों को श्री हनुमानजी से यह षिक्षा लेनी चाहिए कि कोई भी कार्य का प्रारंभ करने पर जबतक वह पूर्ण नहीं होता तबतक अविरत प्रयत्न चालू रखना चाहिए तभी कार्य सिध्द हो सकता है। 
     इसप्रकार भगवान श्री राम से एवं श्री हनुमानजी के जीवन से हमको षिक्षा लेते हुए उनके दिव्य गुणों को जीवन में लाने का प्रयत्न करना चाहिए तभी हमारा जीवन सुन्दर बन पाएगा । जीवन में सुन्दरता आएगी । मुझे सुन्दर बनना है तथा सुन्दर बनकर प्रभु का प्रिय होना है उसके लिए प्रयत्न करना चाहिए । व्यावहारिक सुन्दरता से प्रारंभ करके आत्मिक सौंदर्य तक जाना चाहिए ।
     जीवन श्रेष्ठ होना चाहिए । श्रेष्ठ यानी सत्यं, षिवं और सुन्दरम् जीवन होना चाहिए । हमारा जीवन श्री हनुमानजी की तरह भगवान को सुन्दर लगना चाहिए । जो भगवान को अच्छा लगता है उसका जीवन उच्च स्थिति पर है । श्री हनुमानजी का जीवन ऐसा ही श्रेष्ठतम् एवं उच्चतम् जीवन है । जिस प्रकार श्रीराम ने अपने प्रयत्न से, शक्ति से, सामर्थ्य से और दैवी गुणों से देवत्व प्राप्त किया उसी प्रकार श्री हनुमानजी भी है ।
आज श्री हनुमानजी तथा रामजी के इन दिव्य गुणों का चिंतन मनन करने का हमारे पास समय ही नहीं है केवल शनिवार के दिन श्री हनुमानजी को तेल और सिन्दुर चढाकर सिन्दुर का टिका मस्तक पर लगाकर पूर्ण भक्त बन गये ऐसा संतोष का अनुभव हम करते हैं । इसी में पूर्ण भक्ति आ गयी ऐसा हमको लगता है ।  श्री हनुमानजी के दिव्य गुणों का चिन्तन करते हुए उन्हें आत्मसात करके मुझे भी अपने जीवन को सुन्दर बनाना है और मुझे अपना आंतरिक सौंदर्य खिलाना है ऐसा प्रत्येक हनुमान भक्त को लगना चाहिए ।

प्रभु को हृदय में धारण करके, यदि काम कोई हम करते हैं ।
असंभव भी संभव हो जाता, यह हनुमान कर दिखलाते हैं ॥
गरल सुधा रिपु करहिं मिताई, और अग्नि शीतल हो जाती है....3

     भगवान को तत्तवत: जानना ही ज्ञान है । ज्ञान के मुख्यतया तीन अंग होते हैं, प्रभु, सृष्टि और मैं । इन तीनों अंगों के ज्ञान को सच्चा ज्ञान कहते हैं । प्रभु का ज्ञान, सृष्टि का ज्ञान तथा मैं यानी भगवान ने मुझे क्यों  निर्माण किया इसका ज्ञान होना चाहिए । क्या उपभोगों के लिए मेरा सर्जन है? नहीं! भगवान को जानने के लिए मेरी निर्मिती है । भगवान के प्रति विष्वास पैदा करने वाली जो विचारधारा है, समझ है उसी को हम ज्ञान भक्ति कहते हैं ।
     गीता में प्रभु ने कहा है, 'सर्वस्य चाहं हृदि संन्निविष्ट:' वे कहते हैं कि मैं तेरे हृदय में आकर बैठा हुँ इसलिए तेरा जीवन चलता है । भगवान उपर आकाश में नहीं है, वे मेरे भीतर बैठे हुए हैं इस समझ से जीवन को नया मोड मिलेगा । मुझे पता है मेरा जीवन मैं नहीं चलाता हुँ । विचारषील मानव के जीवन में प्रष्न निर्माण उठते हैं - जीवन किसकी शक्ति से चलता है? मुझे कौन जगाता है? मेरा खाया हुआ अन्न कौन पचाता है? मुझे कौन सुलाता है। मेरा हृदय प्रतिक्षण धडकता है वह कौन चलाता है? जीवन की कोई भी िक्रया प्रभु के बिना संभव नहीं । इस बात का हमे ज्ञान है परन्तु दृढ समज (Understanding) नहीं है ।    
     भक्तियुक्त अन्त:करण करने के लिए सर्जक पर विष्वास होना चाहिए । मेरा कोई सर्जक है, मुझे कोई सम्भालने वाला है, वह करुणामय है, प्रेममय है ऐसा विष्वास होना चाहिए । भगवान को मानना चाहिए । भगवान हैं और वे समर्थ हैं ऐसा दृढपूर्वक जो मानता है उसे डर नहीं लगता । भगवान करुणामय हैं, समर्थ हैं और मेरे हैं ऐसा विष्वास निर्माण होना चाहिए । भक्त कैसा होना चाहिए तो श्री हनुमानजी जैसा, उसके जीवन में तीन बातें आनी चाहिए । 'मुझे मालूम नहीं यह भक्ति में पहली बात है और 'मैं नहीं करता' यह दूसरी बात है तथा 'मेरा कुछ नहीं' यह तीसरी बात है । से तीनो बातें जब दृढ हो जाती है श्री हनुमानजी के भांति उसके लिए जीवन में कोई भी कार्य असंभव नहीं रहता । असंभव लगने वाला काम भी संभव हो जाता है ।   
सुन्दरकाण्ड में लंकिनी भी यही बात कहती है कि, जिस पर भगवान की कृपा हो तथा जिसने हृदय में प्रभु को विराजमान किये हुऐ हैं उसके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं होता। उसके लिए विष अमृत हो जाता है, शत्रु मित्रता करने लगते हैं, अग्नि में षीतलता आ जाती है तथा सुमेरू पर्वत रज के समान हो जाता है, समुद्र गऊ के खुर के समान हो जाता है।
         गरलसुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सितलाई ॥
         गरूड़ सुमेरू रेनु सम ताही। रामकृपा करि चितवा जाही ॥ (सु. 5-1-2-3)
यहाँ श्री राम कृपा से जिन पाँच बातों का होना कहा है, वे सब श्री हनुमानजी में चरितार्थ हुई 1) सुरसा सर्पों की माता है, अतएवं गरल है वह ग्रास करने आयी थी- 'आज सुरन्ह मोहि दीन्ह अहारा।' सो अमृत हुई। उसने आषीर्वाद दिया कि 'रामकाज सब करिहहु तुम्ह बल बुध्दि निधान।' यह सुधा है। 2) लंकिनी ने प्रथम शत्रुता की बात कही कि 'जाने हि नही मरम सठ मोरा..' वही अब मित्रता की बात कहती है, 'प्रबिसि नगर कीजै सब काजा।' 3) सिंधु गोपद-सा हो गया, यथा-'बारिधि पार गयउ मतिधीरा।' 4) 'अनल सितलाई' यह भविष्य की बात भी लंकिनी बतलाती है। आगे जब श्री हनुमानजी लंका दहन करते हैं तब अग्नि शीतल हो जाती है, 'ताकर दूत अनल जेहि सिरिजा। जरा न सो तेहि कारन गिरिजा।' यह अग्नि का शीतल होना ही है। 'जेहि गिरी चरन देइ हनुमंता। चलेऊ सो गा पाताल तुरंता।' यह सुमेरू का रेणु होना है। इसप्रकार प्रभु को हृदय मेें धारण करके, उनपर पूर्ण विश्वास रख कर यदि कोई काम हम जब करते हैं तो फिर हमारे लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं रह जायेगा यह िशक्षा श्री हनुमानजी से हमको लेनी चाहिए ।                         
कृतज्ञता जीवन में लावो, यह राम हमें समझाते हैं ।               
प्रति उपकार करौं का तोरा, कह राम ऋणी हो जाते हैं ॥       
कृतज्ञता की िशक्षा हमको, सुन्दरकाण्ड से लेनी है...........4
     हम यदि सच्चे अर्थ में मानव होंगे तो हमारे अंदर चार गुणों का होना अत्यंत आवश्यक है वे है- (1) कृतज्ञता (2) अस्मिता (3) भावमयता (4) कार्यप्रवणता । मानव जीवन में कृतज्ञता यह बडे से बडा गुण है, यदि यह एक गुण आ जाय तो बाकी के गुण भी धीरे धीरे आ जायेंगे ।
     मानव शक्तिशाली प्राणी है, लेकिन शक्तिशाली बनने के लिए उसे दूसरों का सहारा लेना पडता है । शारिरिक विकास, मानसिक विकास, बौध्दिक विकास और आध्यात्मिक विकास करने के लिए मनुष्य को बहुत से लोगों का सहारा लेना पडता है । भगवान, माँ-बाप, ऋषि इन सभी के नि:सीम प्रेम का परिणाम ही मानव जीवन है । इसलिए मानव को इन सभी के द्वारा किए हुए असीम प्रेम का कृतज्ञता पूर्वक स्मरण करना चाहिए । मानव के जीवन में कृतज्ञता होनी चाहिए ।
     कृतज्ञता यानी किया हुआ प्रेम तथा उपकार याद रखना । प्रेम का कभी निवर्तन नहीं होता । प्रेम की कृति का निवर्तन हो सकता है, उदाहरण स्वरुप कोई प्रेम से एकाद वस्तु दे ंतो उसके प्रेम का निवर्तन (return) उसकी सालगिरह पर हम भी उसे कुछ देकर करते हैं । कोई प्रेम से हमें खाने पर बुलाता है तो हम भी उसे खाने पर बुलाते हैं । अत: हिसाब पूर्ण हो गया । परन्तु किसी ने निरपेक्ष प्रेम किया हो तो उसका निवर्तन नहीं होता । उसके लिए अन्त:करण में जो लगाव उत्पन्न होता है वह स्थिर रहता है वह कृतज्ञता है । मनुष्यत्व किसे कहते हैं? जिसके जीवन में कृतज्ञता है वह मनुष्य है । क्या तुम्हारे जीवन में कृतज्ञता है? कोई कहेगा हम पर किसी ने उपकार नहीं किये तो कृतज्ञता किसके प्रति प्रकट करें? कृतज्ञता का अर्थ केवल किये हुए उपकारों का स्मरण ही नहीं है, अपितु किये हुए प्रेम और किये हुए उपकार का स्मरण ही कृतज्ञता है । तुम्हारे उपर कितने ही लोगों ने प्रेम किया, षुरुआत में तुम्हारी माँ ने तुम्हे प्यार किया, उसी से तुम छोटे से बडे बने, क्या उसके लिए कृतज्ञता है? जिसमें कृतज्ञता नहीं है वह मनृष्य नहीं है । मानव को कृतज्ञ होना चाहिए । जो कृतज्ञ नहीं है वह मनृष्य नहीं है । कृतघ्नता यह महा पाप है ऐसा हमारे षास्त्रकारों का कहना है। बाकी सब पापों को प्रायश्चित है परन्तु हमारे धर्मषास्त्र के अनुसार कृतघ्नी को प्रायश्चित नहीं है। लिखा है-
                 ब्रम्हघ्नेच सुरापेच चोरे भग्नव्रते तथा।
                 निष्कृतिर्विहिता लोके कृतघ्ने नास्ति निष्कृति: ॥
ब्रम्ह हत्या करनेवाला, शराबी, चोर, भग्नव्रत किया हुआ इन सबको प्रायष्चित करके पाप मुक्ति मिल सकती है परन्तु जो किये हुए प्रेम और उपकार का स्मरण नहीं करता ऐसे कृतघ्नी आदमी के लिए प्रायष्चित नहीं है । सभी पापों के लिए प्रायष्चित है परन्तु कृतघ्नी के लिए प्रायष्चित नहीं है ऐसा षास्त्रकार का कहना है ।
     सीता खोज करके लंका से लौटकर हनुमानजी भगवान श्रीराम से जब मिलते हैं और तथा सारा वृतांत सुनाते हैं। सीता माता का दु:ख सुनकर प्रभु के नेत्रों में जल भर आता है तथा वे श्री हनुमानजी की ओर कृतज्ञ भाव से देखते हैं तथा उनके नेत्रों से प्रेमाश्रु छलक पडते हैं ।
भगवान श्रीराम हनुमानजी से कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहते हैं कि, हे हनुमान! सुन तेरे समान मेरा उपकारी देवता, मनुष्य अथवा मुनि कोई भी शरीरधारी नहीं है। मै तेरा प्रत्युपकार तो क्या करूँ? उपकार के बदले में प्रत्युपकार किया जाता है। परन्तु हमारे ऊपर उपकार करनेवाले अर्थात् हमारे उपर संकट में जिसने सहायता की, उसपर संकट आये ऐसी अमंगल कामना करना असंभव है। जिस पर प्रेम है वह संकट में फँस जाए यह कल्पना भी असहय है। श्रीरामजी कहते हैं, हे पुत्र! सुन मैने खुब विचार करके देख लिया कि मैं तुझसे उऋण नहीं हो सकता । इसप्रकार भगवान श्रीराम हनुमानजी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहते हैं-
सुनु  कपि तोहि समान उपकारी । नहिं कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥
प्रति उपकार करौं का तोरा । सनमुख होई न सकत मन मोरा ॥
     भगवान राम से कृतज्ञता की षिक्षा प्राप्त कर हमको भी हमारे जीवन में कृतज्ञता का गुण लाना चाहिए । हमको सदैव माँ-बाप, भगवान, संस्कृति तथा ऋषियो के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए ।
काम करके भी अलिप्त रहना, और अभिमान का कभी स्पर्ष न हो ।
कर्मसु कौशलम् की कुशलता,     श्री हनुमानजी के जैसी हो ॥
सो सब तव प्रताप रघुराई,   यह हनुमानजी का दर्शन है..........5
निर्ममत्व और निरहंकारत्व यह दो गुण श्री हनुमानजी से सीखने जैसे हैं । निर्मम:, निरहंकार: वृत्ति होगी तो आपका जीवन भगवान को अच्छा लगेगा यह सबसे श्रेष्ठ जीवन है। 'मेरा कुछ नहीं है' यह वृत्ति निर्माण होनी चाहिए। भक्ति में मेरा कुछ नहीं है यह एक भाव है। 'मुझे कुछ नहीं चाहिए' यह दूसरा भाव होना चाहिए अर्थात् निर्ममत्व और निरहंकारत्व चाहिए ।
     प्रभु राम हनुमानजी से पूछते है, हे हनुमान! बताओ, रावण के द्वारा सुरक्षित लंका और उसके बडे बाँके किले को तुमने किस तरह जलाया? श्री हनुमानजी प्रभुको प्रसन्न जानकर अभिमान रहित बचन कहते हैं।
कहु कपि रावन पालित लंका। केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका।
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना। बोला बचन बिगत अभिमाना॥
साखामृग के बडि मनुसाई। साखा ते साखा पर जाई
नाधि सिंधु हाटकपुर जारा । निसिचर गन बधि बिपिन उजारा।
सो सब तव प्रताप रघुराई । नाथ न कहु मोहि प्र्रभुताई॥ (सु.33/3/4/5)
श्री हनमानजी कहते हैं, हे प्रभु! बंदरका तो बस बडा पुरुषार्र्थ यह है कि वह एक डाल से दुसरी डाल पर चला जाता है।  मैने जो समुद्र, लांघकर राक्षसगण को मारकर लंका जलाई इसमें मेरा अपना प्रभाव कुछ भी नहीं है। यह तो सब रघुनाथजी आपका ही प्रभाव है हे नाथ! जिसपर आप प्रसन्न हो उसके लिए कुछ भी कठिन नहीं है। आपके प्रभाव से रुइ जो स्वंय जलने वाली वस्तु है वह बडवानल को भी जला सकती है (अर्थात् असंभव भी संभव हो सकता है) यह है श्री हनुमानजी की निराभिमानिता। हम लोग तो काम थोडा करते है और प्रषंसा पाने खातीर बढा चढाकर अधिक बताते हैं। निराभिमानिता का यह गुण श्री हनुमानजी से हमको सीखना चाहिए। रामजी द्वारा की हुई प्रषंसा निराभिमान सेवक श्री हनुमानजी को कैसे अच्छी लगती । अपनी प्रषंसा का श्रवण ही तो अभिमान उत्पन्न करा देता है। श्री हनुमानजी जानते है कि 'इन्द्रेऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैगुणै:।'  स्वयं प्रषंसा सुनने से, या अपने ही मुख से प्रषंसा करने से स्वर्गाधिपति इन्द्र भी लघुता को प्राप्त हो जाता है।
     मूल बात यह है कि यश, या सफलता मेरी है, ऐसा कहने मे सुगंध नहीं हैं। भगवान तेरी सहायता से हुआ यह प्रथम ईमानदारी है। भगवान तेरी सहायता से मैने किया, यह दूसरी ईमानदारी है और भगवान तूने ही किया यह तीसरी ईमानदारी है। मानव को इस स्थिति तक पहँचना चाहिए तभी हम श्री हनुमानजी की तरह प्रभु को प्रसन्न कर सकते है,  प्रभु को अपने वश में कर सकते हैं। मनुष्य के पास इतनी कृतज्ञता होनी चाहिये कि वह अपनी सफलता के लिये भगवान की सहायता स्वीकार कर सके। यही 'न मम' है। लोकेषणारहित जीवन होना चाहिए तभी निराभिमानता आती है। एक समीकरण हैं: जीवन-भगवान = 0।  जिसके जीवन में से, दिमाग में से, कृति मे से परोपकार में से भगवान चले गये है उसका जीवन षूण्य है। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के बारहवे अध्याय में भक्तों के गुणों का वर्णन करते हुए निर्मम: व निरहंकार: इन दो गुणों का भी वर्णन किया है ।
     भक्त कहता है कि प्रभु! मुझमें जो गुण दिखाई देते हैं, वह आपकी कृपा का फल है । मेरे कर्तृत्व का नहीं । भगवान कहते हैं- तूने साधना तो की है न? भक्त कहता है भगवान! साधना तो की है, पर गुणों का बाजार कहाँ है, गुणों के रंग रुप का मुझे पता नहीं है तब मैं गुण कहाँ से लाया? षायद मेरी दृढता, स्थिरता, बौध्दिक एवं मानसिक तत्परता को देखने के लिए ही आपने मुझसे साधना का नाटक करवाया हो और मेरी थोडी बहुत दृढता देखकर ही आपने मुझे गुण प्रदान किए है । इसलिए वे आपके हैं, मेरे नहीं- 'न मम' ।                                       सफलता पचती है तो सुगन्ध निर्माण करती है और न पचे तो दुर्गन्ध निर्माण करती है । अन्न का वैसा ही है । खाया हुआ अन्न पच जाय तो उसका खून, मांस इत्यादि बनकर शरीर को पुष्टि मिलती है, मगर न पचे तो दुर्गन्ध फैलाता है । शरीर को नुकसान पहुँचाता है । जीवन में सफलता न पचे तो दुर्गन्ध फैलाती है । जन्मजन्मान्तर का नुकसान होता है। सफलता मिलने के बाद समतोल संभालना चाहिए । उसी के लिए पुराने जमाने के लोग कहते थे कि सफलता मिले तो भगवान को नमस्कार करो, अहंकार न बढे उसके लिए वह परहेज है । पुराने जमाने के लोग कहते थे कि तुम्हे सफलता मिली  है  वह वृध्दो के आशीर्वाद से मिली है,  अत: वृध्दों को  नमस्कार  करो । वृध्दो के आशीर्वाद से सफलता मिली वह सत्य नहीं है, गलत बात है। आशीर्वाद से क्या होता है? जो सफलता मिलती है वह परिश्रम से मिलती है । लडका एम.बी.बी.एस. की परीक्षा में प्रथम श्रेणी मे उत्तीर्ण हुआ । इतना होने पर भी उसका बाप कहता है कि वृध्दों के आशीर्वाद से तूं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुआ, उन्हे नमस्कार कर । पुराने जमाने के लोग ऐसा कहते थे कि वृध्दो के आशीर्वाद से सफलता मिली कारण मनुष्य में अहंकार न आयेगा । आज तो हमे सफलता मिली तो हम मिठाई लेने दौडते हैं । सफलता मिली तो वृध्दों के पास जाना चाहिए । भगवान के पास जाना चाहिए और कहना चाहिए कि तुम्हारे आशीर्वाद से सफल हुआ इसलिए नमस्कार करता हूँ । ऋषि, संत संपूर्ण समाज के लिए विचार करते थे, इसीलिए ऐसी बाते सहजता से रख दी थी। उनकी ऑंखो के सामने सामान्य मनुष्य का कल्याण था । पची हुयी सफलता सुगन्ध फैलाती है और न पची हुयी दुर्गन्ध फैलाती है । सफलता पचे तो उसकी सुगन्ध से अन्दर बैठे भगवान खुश होते हैं। भगवान की खुशी से हमें खुशी होती है ।                           
सफलता से दो बातें होती है - उत्साह बढता है और अहंकार बढता है । उत्साह बढता है वह आध्यात्मिक आवश्यकता है और अहंकार बढता है वह गलत बात है । अहंकार के कारण ऑंखो के सामने ऑंधी आती है, कितने ही लोग जन्मत: सफल होते है ं उन्हे प्रत्येक काम में सफलता मिलती है। सफलता मिलने के बाद ऑंधी आती है और ऑंधी आने के बाद मनुष्य का पतन होता है और जन्मजन्मान्तर तक तकलीफ देता है । अध्यात्म में सब विचार करना पडेगा । इसका कारण वह जन्मजन्मान्तर का प्रश्न है, वह एकाध जन्म का प्रश्न नहीं है ।  एकाध जन्म में बिमारी आये तो दवाई से शारीरिक तकलीफ मिट जाती है, परन्तु मानसिक बिमारी आये तो दस जन्मों को हैरान करती है ।    भगवान पूछेंगे- तू बंधनयुक्त है या बंधनमुक्त? बन्दी कौन? और मुक्त कौन?ष्षास्त्रकारोंने बन्ध और मोक्ष की परिभाषा इस पंकार की है- 'मम' बोलनेवाला बंधा और 'न मम' मेरा नहीं बोलनेवाला मुक्त है ।  'मामेति बन्ध मूलं स्यात् निर्ममेति च निवृत्ति:' पिता कन्यादान के समय कन्या का हाथ वर राजा के हाथ में थमाते हुए कहता है- 'न मम' आज से कन्या मेरी नहीं है । 'न मम' बोलने के पष्चात् पिता मुक्त होकर निष्ंचित होकर सो जाता है और उसी क्षण वर राजा 'मम' बोलकर लडकी को स्वीकार कर बन्ध जाता है । फिर जीवन पर्यन्त पत्नी का सब कुछ उसे देखना पडता है । 'मम' में बन्धन और 'न मम' में मुक्ति है । इसप्रकार श्री हनुमानजी से हमको निर्ममत्व व निरहंकारत्व इन दोनो गुणों की षिक्षा जीवन में लेनी चाहिए । यही कर्मों की कुशलता है काम करके भी अलिप्त रहने की यह कला हमको श्री हनुमानजी से सीखनी चाहिए ।
प्रभु की भक्ति करनी हो तो, आधार प्रेम को करना है ।
रामहि केवल प्रेम पियारा, यह गोस्वामीजी का कहना है ॥
निर्मल मन जन सो मोहि पावा, यह रामजी भी कहते हैं ......6
     हम भगवान की भक्ति तो वर्षों से करते आ रहे हैं, और निरंतर करते हैं परन्तु भक्ति किसलिए यह प्रष्न है। भगवान तो पूर्ण हैं उन्हे कुछ नहीं चाहिए और हम तो भगवान को रिझाने के लिए, मनाने के लिए भक्ति करते हैं। भगवान को हमारा दिखाया लालच या स्तुति वचनोंकी आवष्यकता नहीं है। भगवान की भक्ति मेरे अपने विकास के लिए है। भक्ति करके भक्त के जीवन में कुछ परिवर्तन नहीं हुआ तो भक्ति का कुछ अर्थ नहीं है। भक्ति का परिणाम मन पर होना चाहिए। मुझे अपना मन बदलना है (I want to change my mind) जो भगवान को अति प्रिय है- इसलिए भक्ति है। जबतक यह समझ पक्की नहीं होती तबतक पागल मनुष्य भगवान को खुश करने के लिए भक्ति करता रहता है।                                           
दो बातें याद रखनी है - एक भक्ति मेरे लिए है। दूसरी वह कि भगवान अपूर्ण नहीं, पूर्ण हैं। उनको कामना नहीं है। मनुष्य को अन्तर्निरीक्षण (Instrospection) करना चाहिए। मैं सालों से भक्ति कर रहा हूँ परन्तु अन्दर कितना बदला? मुझमें कुछ परिवर्तन हुआ है? मुझमें आन्तरिक परिवर्तन नही हुआ तो भक्ति व्यर्थ है। भक्ति केवल कृति नहीं बल्कि वृत्ति है। भक्त होने के लिए अन:तकरण षुध्द करना पडता है। और मन को स्वच्छ वस्त्र पहनाने पडते हैं। भक्ति अर्थात् जीवन की ओर देखने की एक विषिष्ट प्रकार की वृत्ति दूसरों के प्रति प्रेम का व्यवहार करना। दूसरों के लिए कुछ भी काम करना हो उसे स्नेह से करना होगा कर्तव्य समझकर नहीं। केवल कर्तव्य में रुखापन है। मैने अपना कर्तव्य पूरा कर दिया ऐसा कहकर छुटकारा नहीं मिल सकता।              
सचमुच प्रेम करना एक बडा अभ्यास है। किसीके उपर निरपेक्ष, निराकांक्ष प्रेम करना कठिन काम है। परन्तु धीरे धीरे अभ्यास करने से फिर वह स्वभाव बन जाता है। भगवान को निर्मल मन और निष्काम प्रेम सबसे अधिक प्रिय है ।  भगवान को कौटुंबिक प्रेम विशेष करके सबसे अधिक प्रिय है । भगवान के पास जाने पर भगवान पूछेंगे, ' मैं प्रेममय हूँ ' तो क्या तेरे उपर प्रेम का एक छींटा भी है? जीव कहेगा कि हाँ ' मैने बहुत से लोगों से प्रेम किया है ।' ' भगवान कहेंगे जिसे तू प्रेम कहता है वह प्रेम नहीं व्यापार है । उससे कुछ मिलता है इसलिए बदले में तू प्रेम करता है । तूने यदि किसी से नि:स्वार्थ, निर्हेतुक विषुध्द प्रेम किया तो बता?  भगवान पूछते हैं- मेरे परिवार में (जगत मे) बुरे से बुरे लोग है। तूं मेरे ऐसे कुटुम्बिजनों से प्रेम कर सकेगा? भगवान को कौटुंबिक प्रेम सबसे अधिक प्रिय है।                                                      
हम यदि रामायण का सूक्ष्मता से अध्ययन करेंगे तो हमे श्रीराम परिवार में अद्भुत प्रेम के दर्शन होंगे। जो चिंतनिय व अनुकरणीय भी है। माँ कैकयी ने निरपराध रामजी को चौदह वर्ष का वनवास दिया । इतनी बडी घटना होने के बाद भी परिवार में कहीं कलह नहीं हुआ। कोई किसी से नाराज नहीं हुआ। किसीने किसी कि निंदा, आलोचना, अपमान, अनादर तिरस्कार नहीं किया। किसी ने किसी से षिकायत नहीं की। परस्पर आपसमें किसी ने बोलचाल भी बंद नहीं की। परिवार के किसी भी सदस्य ने किसी पर लेशमात्र क्रोध नहीं किया। प्रत्यक्ष दोषी माँ कैकयी को किसी ने दोष नहीं दिया। यह रहस्य था श्रीरामजी के परिवार के प्रेम का। कैकयी यदि देखा जाय तो स्वभाव से दुष्ट कुटिल अथवा षडयंत्रकारी नहीं थी। संसार में जब कोई सुख कि पराकाष्ठा पर होता है तभी मन्थरा जैसे व्यक्ति आते हैं और सुख को छिन्न भिन्न कर डालते हैं। परिणाम यह होता है कि सुख षान्ति में एक प्रकार की विकृत दृष्टि आ जाती है। परन्तु जब भरत ने निर्भत्सना करते हुए उसकी भूल बताई तो अपनी भूल का उसने तुरन्त स्वीकार कर लिया। सभी ने काल कर्म और विधाता को दोष दिया परन्तु कैकयी को किसी ने दोष नहीं दिया यह विषुध्द प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण है। इसीकारण परिवार में षांति व प्रेम बना रहा । इस प्रकार जिस परिवार में ऐसा निष्चल, प्रेम होता है वह प्रभु को अति प्रिय है ।                                     
भगवान श्री राम इसीलिए विभीषण जी से कहते हैं कि मुझे निर्मल मन के निष्काम, निराकांक्ष प्रेम करने वाले भक्त अति प्रिय है । जिनके मन में छल कपट होता है वे मुझे बिल्कुल नहीं सुहाते । जिस परिवार में ऐसा विषुध्द प्रेम होता है, एक दूसरे के प्रति त्याग और समर्पण का भाव होता है वहाँ प्रभु नाचते है । रामायण-सुन्दरकाण्ड पढते समय हमें इन बातों का चिन्तन मनन करते हुए इन गुणों को जीवन में लाने का प्रामाणिक प्रयत्न करना चाहिए तभी हमारा जीवन सुन्दर बनेगा, प्रभु को प्रिय लगे ऐसा बनेगा । श्री रामचरितमानस मे भगवान षंकर ने भी कहा है- ''हरि व्यापक सर्वत्र समाना।  प्रेम से प्रगट होई मै जाना ॥' (बालकाण्ड 184/5) इसका आशय है कि भगवान सब जगह समान रुप से व्याप्त है। प्रेम से वे प्रगट हो जाते है।                              
जिन परमात्माने सब को सब कुछ दिया है, निरन्तर दे रहे हैं, जिन प्रभु के पास सब कुछ है फिर भी उन्हे केवल एक ही चीज प्यारी है वह है प्रेम। रामचरितमानस मे कहा गया है- ं''राम हि केवल प्रेम पियारा। जानि लेउ जो जाननिहारा॥'' (आयोध्याकाण्ड 136/1) इसका आशय है कि प्रभु श्रीराम को केवल प्रेम ही प्यारा है। जो जानना चाहता है जानलें। परमात्मा वैसी कृपा प्रेम की साधना से करते हैं, वैसी व उतनी कृपा अन्य किसी साधना से नहीं करते है। श्रीरामचरितमानस में भगवान शंकर की वाणी है-            
उमा जोग जप दान  तप नाना मख ब्रत नेम।                             राम कृपा नहिं करहिं तसि जसि निष्केवल प्रेम ॥ (लंकाकाण्ड 117/ख)
     इसका आशय है- हे उमा! अनेकों प्रकार के योग, जप, दान, तप, यज्ञ, व्रत और नियम करने पर भी श्री रामचंद्रजी वैसी कृपा नहीं करते जैसी अन्यन्य प्रेम होने पर करते है। प्रेमी का हृदय ही प्रभु का निवास स्थान है, उनका अपना घर है, प्रभु का निज मंन्दिर है। किसी भक्त ने कहा है-
प्रबल प्रेम के पाले पडकर प्रभु को नियम बदलते देखा ।                 अपना मान भले घट जाए भक्त का मान न घटते देखा ॥
     प्रेमी सर्वशक्तिमान परमात्मा को प्रेम की डोरी से बांध देता है। जिन प्रभु की असीम शक्ति से मृत्यु भी घबराती है। काल थर थर कापता है, वे महान प्रभु प्रेम में बंध जाते है।   भगवान का अत्यंत प्रिय अपत्य मन है। भगवान का मन पर अत्यंत प्रेम है इसका कारण उस मन से ही जीव भगवान के पास आनेवाला है। भगवान कहते हैं कि मुझे तेरा धन दौलत इत्यादि कुछ नहीं चाहिए केवल तेरा मन चाहिए। गीता में भगवान ने माँग की है- 'मय्यावेष्य मनो ये माम' - कहा है। अत्यंत नाजूक, कोमल, निर्मल जिस पर मेरा भाव है ऐसा कोई होगा तो वह मन है। इसीलिए वह मन तू मुझे दे ऐसा भगवान गीता में कहते है और वही बात भगवान राम भी कहते हैं- ''निर्मल मन जन सो मोहि भावा।'' मन भगवान का बहुत ही लाडला है। भगवान कहते हैं मुझे निर्मल मन चाहिए। वह कपट छल से युक्त नहीं होना चाहिए वह विशेष बात है।                        
जीवनमें मन काफी महत्वपूर्ण है। मन है तो सुनना है, मन है तो बोलना है, मन है तो सब कुछ है। मनको षांत करने पर ही नींद आती है। इसलिए जीवन की प्रत्येक क्रियामें मन आवष्यक है। भोगार्थ भी मन और मुक्ति के लिए भी मन है। गीता में भगवान ने कहा है, 'मन्मना भव'। व्यवहारमें भी वक्ता, श्रोता, पत्नी, पुत्र, अधिकारी सभी मन मांगते हैं। मनके बिना अनुषासनपूर्ण जीवन यांत्रिक है। जीवन विकास के लिए मन का षुध्दिकरण अत्यंत आवष्यक है । मन छल कपट से युक्त नहीं होना चाहिए । परन्तु हमारा मन तो काला, छल कपट से भरा हुआ है तो उसे निर्मल किस प्रकार किया जाए यह प्रष्न है । जीवन विकास के लिए मन का षुध्दिकरण आवष्यक है । हमको यदि भगवान का प्रिय बनना है तो प्रथम हमें अपने मन को स्वच्छ करना होगा । मन को स्वच्छ करने का एक ही उपाय है कि वह जहाँ से हमें मिला है वहाँ याने परमात्मा से हमें मन मिला है तो उसी परमात्मा में मन को जोड देने से उसका रंग बदल जाएगा, वह निर्मल, स्वच्छ तथा पवित्र बन जाएगा ।            स्वच्छता होनी चाहिए उसके लिए भारतीय संस्कृति में विविध प्रकार के स्नान बताए गये है । मन व बुध्दि को भी स्नान कराना चाहिए । केवल शरीर की स्वच्छता पर्याप्त नहीं है। षारिरीक स्नान भी षुध्दि के लिए होता है । बुध्दि का स्नान अर्थात स्वाध्याय और मन का स्नान चित्तएकाग्र करके भक्ति करना। मानव जीवन में मन का असाधारण स्थान है । मन को शक्तिषाली, संस्कारी, संवेदनषील और प्रतिकारक्षम बनाना चाहिए । यह केवल स्वाध्याय से हो सकता है । मन और बुध्दि शरीर के वाहक है, उनको स्वाध्याय से शक्तिषाली बनाना चाहिए । इसलिए रोज गीता, रामायण, वेद, उपनिषद आदि ग्रंथों में  डुबकी लगानी चाहिए । यानी प्रतिदिन इनका स्वाध्याय करना चाहिए । तभी इनमें नहाकर मन व बुध्दि षुध्द होंगे । बुध्दि में षुचित्व लानी हो तो निरंतर सद्विचारों की वर्षा करनी होगी । बुध्दि सद्विचाराें से भीगनी चाहिए । तभी सद्विचारों के अंकूर फूटेंगे । जब हमारे मन व बुध्दि षुध्द, पवित्र, निर्मल हो जायेंगे तभी हमारे जीवन में निष्काम प्रेम का संचार होगा फिर हमें प्रभु के प्रिय होने से कोई नहीे रोक सकता । हम अवष्य ही प्रभु की कृपा के पात्र बन जायेंगे । भक्ति करने के लिए यही एक सूत्र है । भक्ति करनी हो तो निष्काम प्रेम करना होगा व मन को निर्मल बनाना होगा तभी हमारी सही अर्थ में भक्ति होगी व हम प्रभु के प्रिय बन सकेंगे ।
पाठ से पुण्य मिलेगा यदि,     इतना ही समझ पावोगे ।
रामायण के रचनाकार का,    हेतु निष्फल कर दोगे ॥
आगे पाठ फिर सपाट बनकर, जीवन व्यर्थ गँवावोगे...........7

सुन्दरकाण्ड का चिंतन करके, जीवन को सुन्दर बनाना है ।
सद्गुणों को धारण करके,    जीवन को सफल बनाना है ॥
सुन्दरकाण्ड से षिक्षा लेकर, प्रभु का प्रिय हो जाना है...........8

रामायण में रामचरित्र के विस्तृत चित्रण द्वारा तुलसीदासजी ने समाज के समक्ष आदर्शभूत सामाजिक गुण, दिव्य कौटूम्बिक जीवन तथा जीवन संबंधी नैतिक मुल्योंका अधिष्ठान प्रस्तुत किया है। हजारों वर्षों के बाद भी मानव आदर्श और उच्चतम जीवन किस प्रकार व्यतीत करें, इसका पूर्ण ज्ञान रामायण देती है इस दृष्टि से रामायण की और देखना चाहिए ।         राम का वर्णन पढकर वाल्मीकि एवं तुलसीदासजी की यह अपेक्षा है कि राम का आदर्श सदैव अपने सामने रखो। राम के गुण अपने जीवन में लाने का सतत प्रयत्न करो अन्यथा राम चरित्र का अध्ययन निरर्थक है। वाल्मीकि एवं तुलसीदासजी का दिव्य हेतु नष्ट न करो ।  मानव से देव बनने की इच्छा रखो। रामायण पढते हो और पिता के चरण नही छूते? रामायण पढते हो और भाई-भाई का प्रेम संबंध नही रखते?  पढकर अथवा सुनकर नमस्कार करने जैसा यह ग्रंथ नही है, परन्तु जीवन में महान तत्त्वों को उतारने के लिए यह ग्रंथ है।आज रामकी भाँति पितृ-प्रेम, भ्रातृ-प्रेम इत्यादि के लिए प्रयत्न ही नहीं करते और उपर से कहते हैं, 'राम ने यह सब किया, क्योंकि राम भगवान थे' और अपना पीछा छुडा लेते हैं।रामायण से, सुन्दरकाण्ड से हम अपने जीवन में बहुत सी िशक्षा प्राप्त कर सकते हैं, उसके लिए उसमें वर्णित चरित्रों के गुणों का चिंतन मनन करते हुए उन दिव्य गुणों को आत्मसात करने का प्रयत्न करना चाहिए ।       रामायण को पढने की दो शैली है । एक शैली तो यह है कि आप इतिहास के रुप में कथाओं को पढें। जैसे कोई चित्रकार अपनी तुलिका और रंग के द्वारा चित्र अंकित करता है, उसी प्रकार तुलसीदासजी ने शब्दों द्वारा उस युग का चित्र प्रस्तुत कर दिया, और उसके द्वारा हम पुराने युग का वह चित्र अपनी ऑंखों से देख सकते हैं। लेकिन चित्र के साथ-साथ तुलसीदासजी ने रामायण में एक नयी दृष्टि दी है। उनसे जब पूछा गया कि आपके राम को देखने के लिए कौनसी दृष्टि चाहिए? तब तुलसीदासजी ने कहा कि हमारे राम को देखने के लिए केवल दृष्टि ही नहीं चाहिए? यद्यपि संसारमें हम और आप जब भी किसी दूसरे को देखते हैं तो ऑंखों से देखते हैं । पर वे कहते हैं कि राम को देखने के लिए दृष्टि अपेक्षित है । अर्थात् राम चरित्र का चिंतन मनन करते हुए उनके दिव्य गुणों को आत्मसात करने का प्रयत्न करना चाहिए।  पर वे कहते हैं कि राम को देखने के लिए केवल दृष्टि ही नहीं बल्कि एक वस्तु और चाहिए ।                      
जिन बेचारों के पास ऑंखें नहीं हैं, और जिनका दर्पण साफ नहीं है, वे हमारे राम को नहीं देख सकते। और जब तुलसीदासजी यह कहते हैं कि हमारे राम को देखने के लिए केवल ऑंखें प्रयाप्त नहीं हैं बल्कि दर्पण भी चाहिए तो उसका तात्पर्य क्या है? यह जो दृष्टि और दर्पण है गोस्वामीजी स्वयं अपने गुरुजी से इन दोनों वस्तुओं कि मांग करते हैं। जब वे रामायण्ा लिखने लगे तो उन्होने गुरुजी से कहा कि कृपा करके वे ऑंखे दीजिए, वह विवेक कि दृष्टि दीजिए कि जिसके द्वारा भगवान राम का चरित्र प्रत्यक्ष हो सके। और जब उन्होने गुरुदेव की चरणों की धूलि अपनी ऑंखों से लगायी तो उनकी दृष्टि दिव्य हो गयी, विवेक कि दृष्टि अत्यन्त उज्जवल हो गयी और उनको भगवान राम का चरित्र दिखाई देने लगा । रामायण के प्रारंभ में वे लिखते हैं-
गुरु पद रज मृदु मंजुल अंजन । नयन अमिय दृग दोष विभंजन ॥                                            तेहिं करि बिमल बिबेक बिलोचन । बरनउँ राम चरित भव मोचन ॥
     मैं गुरुदेव के चरणों कि धूलि से अपने विवेक कि दृष्टि को उज्जवल बना करके अब राम कथा का वर्णण करता हूँ । आगे अयोध्या काण्ड के प्रारंभमें व श्री हनुमान चालिसा के प्रारंभ में उन्होने गुरुदेव से और एक और वस्तु कि प्राप्ती के लिए प्रार्थना की है। वे कहते हैं गुरुदेव! दृष्टि तो मिल चुकी है पर एक वस्तु की और आवश्यकता है, और उसके लिए मैं आपसे प्रार्थना करता हूँ । क्या? तो- 'श्री गुरु चरण सरोज रज' लेकिन यह गुरु के चरण की रज ऑंखों के लिए नहीं है, तब काहे के लिए है? तो बोले - 'निज मन मुकुरु सुधारि' दर्पण के लिए है। गुरुदेव! दृष्टि तो मिल गयी पर दर्पण और चाहिए। अत: आप मुझे दृष्टि के साथ-साथ दर्पण भी दीजिए। और तब- ''बरनउँ रघुबर बिमल जसु'' इसका तात्पर्य क्या है? श्री राम को देखने के लिए दृष्टि और दर्पण दोने चाहिए। यह बात बताकर गोस्वामीजी ने संदेश दिया है जरा उसपर गहराई से विचार करने कि आवष्यकता है ।        अपने आपको देखना हों तो ऑंखे होते हुए भी हम अपने आप को देख नहीं पाते हैं। और तब अपने को देखने के लिए हम एक शीशा सामने रख लेते हैं और षीषें में फिर जब हम अपनी आकृति को, अपने प्रतिबिंब को देखते हैं तो हम अपनी ऑंखें के द्वारा यह समझ पाते हैं कि हम कैसे हैं? इसका अर्थ हुआ कि दूसरों को देखने के लिए तो केवल दृष्टि ही चाहिए पर अपने को देखने के लिए दृष्टि और दर्पण दोनों की आवष्यकता है। इसका अर्थ हुआ कि तुलसीदासजी दर्पण को इतना महत्व दे रहें हैं उसके पीछे रहस्य यही है कि गोस्वामीजी बताना चाहते हैं कि अगर व्यक्ति को दृष्टि मिल जाए और दर्पण न मिले तो व्यक्ति अधुरा रहेगा। अगर दृष्टि के द्वारा हम पुराने इतिहास को पढें, देखें और सुनें । श्रीराम के चरित्र को देखें, कि राम ऐसे थे, भरत, लक्ष्मण ऐसे थे, तो प्रष्न यह है कि उनके विषय में पढने के बाद हमें पढने में आनन्द की अनुभूति तो होती है पर आनन्द की अनुभूति के साथ-साथ दूसरा प्रष्न यह आता है कि हमारे अर्न्तजीवन में उससे कोई लाभ होता है कि नहीं? और इसका सीधा सा तात्पर्य यह है कि अगर हम उन चरित्रों कि उँचाई को पढ भी लें तो यही सिध्द होता है न कि, श्री भरतजी महान थे, श्री हनुमानजी, श्री लक्ष्मणजी महान थे। लेकिन प्रष्न तो यह है कि हम कहाँ पर हैं? इसका अर्थ हुआ कि उनको देखने के बाद जबतक हम अपने को भी न देखें और उन दोनों को मिला करके हम अपने जीवन की समीक्षा न करें, तबतक राम कथा की सच्ची सार्थकता नहीं होंगी । इसका तात्पर्य यह हुआ कि दृष्टि के द्वारा पहले हम इतिहास के पक्ष पर ध्यान दें और फिर दर्पण के रुपमें जब हम अपने आपको दर्पण में देखेंगे तो हमें अपनी कमियों का अनुभव होगा और हम उन्हें दूर करने की चेष्टा करेंगे ।             
दर्पण की सबसे बडी विशेषता यह है कि दर्पण से बढकर कोई प्रिय नहीं और दर्पण से बढकर कोई झगडे की जड भी नहीं । दर्पण प्रिय तो इतना है कि कौन घर ऐसा होगा जिसमें कोई षीषा न हों । तो दर्पण प्यारा इतना है कि प्रत्येक व्यक्ति घरमें रखता है । लेकिन दर्पण झगडे कि जड भी इतनी है कि स्वयं व्यक्ति षीषा देखता है तो प्रसन्न रहता है पर अगर आप दूसरे से कह दीजिए जाकर शीषे में अपना मुँह देखलो तो झगडा हुए बिना नहीं रहेगा । सचमुच बडी विचित्र बात है जो षीषा हमें पसंद है जब कोई दूसरा हमें शीषे में अपना मुँह देखने के लिए कह देता है तो हमें क्रोध आ जाता है। तो यह क्रोध क्यों आता है? इसका एक मनोवैज्ञानिक कारण है। षीषे की विशेषता यह है कि वह हमारी आपकी कमियों को बतलाता है। यदि हम सो करके उठे हैं, बाहर जाना है, षीषे के सामने खडे हो गये तो षीषा यह बतला देता है कि बालों कि दषा क्या है? ऑंखें साफ हैं या नहीं, मुँह पर क्या गंदगी लगी है? इसका अभिप्राय है कि षीषे का मुख्य काम हमारी आपकी कमी को बतलाना है। वह हमारा मित्र है जो कि हमारी कमियों की ओर संकेत करके हमको उन्हें दूर करने की प्रेरना देता है। लेकिन जब दूसरा व्यक्ति कहता है जरा षीषा देख लीजिए? तो इसका अर्थ है कि वह हमारी कमी को दूर करने के लिए चिन्तित नहीं है, बल्कि हमारी हँसी उडाने के लिए, हमारी कमी को दूसरे के सामने खोल करके रखने के लिए तथा दूसरों कि दृष्टि में हमें नीचा दिखाने के लिए व्यग्र हैं। इसका अर्थ है कि जब हम और आप अपनी कमी स्वयं देखते हैं तो प्रसन्नता होती है, पर हमारी कमी को अगर दूसरा दिखाने लगे तो हमें क्रोध आ जाता है ।                                           तुलसीदासजी ने गुरुदेव से दर्पण की मांग की है । हम लोगों से तुलसीदासजी ने यह नहीं कहा कि आप लोग षीषे में देखिए क्योंकि यदि वे ऐसा कहते तोष्षायद हम लोगों को उनकी बात बुरी लगती परन्तु वे अपना मुँह षीषे में देखते हैं। तो तुलसीदासजी ने जो दर्पण गुरुजी से मांगा है उसमें केवल तुलसीदासजी कीे ही शक्ल थोडे ही दिखाई देगी? तुलसीदासजी जो दर्पण मांगते हैं उसका अभिप्राय यह है कि हम अपनी ओर से देखते हैं कि नहीं देखते? हम अपने जीवन के प्रति सजग हैं कि नहीं, सावधान हैं कि नही ंहम अपनी कमियों को समझकर उनको दूर करने की चेष्टा करते हैं कि नहीं?       रामायण में दशरथ के जीवन में हमें त्याग की वृत्ति, समर्पण की वत्ति और समता की वृत्ति दृष्टिगोचर होती है तथा इसके उल्टे दशमुख के जीवन में दूसरों की कमी देखना, दूसरों को कष्ट में डालकर प्रसन्न होना दिखाई देता है । हम और आप रामायण के षीषे में अपनी ओर झांक कर देखें कि हमारे आपके हृदय पर किसका षासन चल रहा है? दशमुख का षासन है कि दशरथ का शासन? विचित्र बात यह है कि हमारे आपके जीवन में दोनों का शासन चलता है यही तो जीवन की सच्चाई है । कुछ पल हमारे आपके मन में देने की वृत्ति आती है, त्याग की वृत्ति आती है तो समझ लेना चाहिए कि हमारे आपके अन्त:करण पर इस समय दशरथ का षासन है । लेकिन दूसरे ही क्षण उलट करके देखें तो हमारा जीवन विचित्र बना हुआ है कि जिस जीवन पर दशरथ का शासन था उसी जीवन पर अब दशमुख का शासन भी चलता रहता है। और जब दशमुख का शासन आता है तो हम दूसरे को नीचे दिखाने का प्रयत्न करते हैं, दूसरे की कमी देखते हैं, दूसरों को कष्ट में डालकर हम प्रसन्न होते हैं और परिणाम यह होता है कि रामायण का जो सत्य है वह केवल रामायण का ही सत्य न रहकर हमारे आपके जीवन का सत्य बन कर रह जाता है। इसलिए रामायण के पात्रों का अध्ययन करके उन चरित्रों के दिव्य गुणों का चिंतन मनन करते हुए उन दिव्य गुणों को आत्मसात करने का प्रयत्न करना चाहिए तभी रामायण का पढना सार्थक होगा ।  रामायण को एक दर्पण के रुपमें देखिए तो रामायण के 'जीव' का चित्र, हमारा आपका ही चित्र है। रामचरित मानस का वर्णन केवल चित्र के रुप में न देख कर उसे एक दर्पण के रुप में देखना चाहिए। गोस्वामीजी कहते हैं कि ये संसार के जो समस्त जीव हैं वे सब विभीषण का रुप ही हैं। हमारा आपका प्रतिबिंब उसमें दिखाई दे रहा है। गोस्वामीजी कहते हैं कि जो मनुष्य की स्वर्णिम प्रवृत्ति है यही लंका दुर्ग है। सबके हृदय में एक एक लंका बनी हुई है और इसका निर्माण किसने किया, उसमें विशेष आकर्षण की सृष्टि करने वाला कौन है? तो रामायण में पंक्ति आती है- ''सोई मय दानव बहुरि सँवारा'' 'मय' नाम का जो दानव था उसीने लंका को अधिक चमकिला, सुन्दर और आकर्षक बना दिया । तुलसीदासजी कहते हैं कि यह 'मय' नाम का जो दानव है वह हमारे-आपके सबके पास है और यह 'मय' दानव जैसे त्रेतायुग में लंका बनाने वाला था उसी प्रकार हमारे-आपके जीवन में भी लंका बना रहा है । 'मय दानव' कौन है? तो गोस्वामीजी विनय पत्रिका में कहते हैं- ''वपुष ब्रहाण्ड सुप्रवत्ति लंका-दुर्ग, रचित मन दनुज मय रुप धारी'' जो व्यक्ति का 'मन' है वही 'मय' दानव है।                                                    धर्म की कल्पना भी मन के द्वारा साकार होती है तथा अधर्म और पाप की वृत्ति भी मन के द्वारा साकार होती है । इसलिए यह जो मन है वह दोनों नगर का निर्माता है । हमारा मन दोनों भवनों का निर्माण करने वाला है यही मन की विचित्रता है। इसीलिए कहा गया है कि 'मन' ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण है। ''मन एवं मनुष्याणां कारणं बन्धन मोक्षयो:'' इसका अभिप्राय यही है कि मनमें जब धर्मराज की सभा का निर्माण होता है, जब धर्म की प्रवत्तियों के प्रति हमारे अन्त:करण में आकर्षण उत्पन्न होता ह,ै तब हमारे अन्त:करण में मोक्ष की वृत्ति आती है। और जब हमारे मनमें पाप प्रवत्तियाँ उदित होती हैं तो मानो हमारे जीवन में रावण की सभा का निर्माण होता है। रावण की प्रवत्तियाँ सक्रिय होती है। पाप की प्रवत्त्यिँ तो हमारे जीवन में अधिक सक्रिय होती हैं परन्तु सत् प्रवत्तियाँ हमारे जीवन में उतनी सक्रिय नहीं होती हैं। जो त्रेतायुग का सत्य है वही आज भी हमारे और आपके जीवन का सत्य है। और अगर आज भी हमारे आपके जीवन का वही सत्य है तो जैसे उस युगमें समस्याओं का समाधान पाने के लिए श्रीराम की आवष्यकता थी, उसी प्रकार आज के युग में भी उनका समाधान पाने के लिए श्री राम की आवष्यकता है।             
चित्र और दर्पण में अंतर यह होता है कि चित्र में आपको भूतकाल दिखाई देता है, और दर्पण में? जब आप षीषे के सामने खडे हो जाते हैं तो दर्पण में आपको भूत नहीं दिखाई देता है बल्कि वर्तमान दिखाई देता है। तो रामायण को इतिहास की दृष्टि से पढेंगे तो वह त्रेतायुग का इतिहास है, भूतकाल है और यदि रामायण को एक दर्पण के रुप में देखेंगे तो तो रामायण के 'जीव' का चित्र हमारे आपके जीवन का चित्र है। हमारा आपका प्रतिबिंब उसमें दिखाई दे रहा है। इसीलिए सुन्दरकाण्ड में प्रतिपादित सुन्दर बातों को हमें एक दर्पण के रुप में देखने का प्रयास करना चाहिए तथा उन बातों का चिंतन मनन करते हुए जीवन में आत्मसात करने का प्रयास करना चाहिए। तभी हमारा जीवन सफल होगा तथा तुलसीदासजी का हेतु निष्फल न होगा ।                     
सुन्दरकाण्ड से यदि हमने कुछ िशक्षा ग्रहण नहीे की तो हम कैसे भक्त और कैसे उपासक? सद्गुणों को उठाकर जीवन को सुन्दर बनाने का प्रयास करना चाहिए । उसके लिए मानसिक, बौध्दिक व आत्मिक सौंदर्य पर ध्यान देना चाहिए ।  महाराष्ट्र के संतो ने गाया है 'सुन्दर मी होणार' सुन्दर बनने की आकांक्षा रखनी चाहिए तथा जीवन को श्री हनुमानजी की तरह ज्ञान, कर्म और भक्ति युक्त बनाने का प्रयास करना चाहिए । तभी हम श्री हनुमानजी के सच्चे उपासक कहलाने के योग्य होंगे । श्री हनुमानजी की तरह गुणों को धारण करके मुझे भी सुन्दर होना है तथा सुन्दर बनकर भगवान का प्रिय बनना है ऐसी िशक्षा व प्रेरणा हमको सुन्दरकाण्ड से लेनी चाहिए । सुन्दरकाण्ड के विचारों को तथा श्री हनुमानजी के दिव्य गुणों को आत्मसात करने की तथा आदर्श एवं उच्च्चतम् जीवन जीने की एवं भक्तिपथ पर अग्रसर होने की श्री हनुमानजी सभी को शक्ति प्रदान करें यही प्रभु चरणों में नम्र प्रार्थना है ।

1 comment:

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    sunderkand

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