Sunday 21 August 2011

Sunderkand Santmat, Lokmat, ढोल गँवार सुद्र पसु नारी.......

समुद्र से प्रार्थना, संत मत, लोकमत िवचार एवं सुन्दरकाण्ड समापन
रामजी सुग्रीव और बिभीषणजी से पूछते हैं कि अब इस गहरे समुद्र को किस प्रकार पार किया जाय? विभीषणजी कहते हैं- हे रघुनाथजी! सुनिए यद्यपि आप का एक बाण ही करोडों समुद्रों को सोख सकता है। तथापि नीति ऐसी कही गयी है कि पहले समुद्र से प्रार्थना की जाए।
     समुद्र आपके कुल में बडे हैं, वे विचार कर उपाय बतला देंगे। और इस प्रकार सेना बिना परिश्रम के समुद्र के पार उतर जाएगी। रामजी को यह बात अच्छी लगी और कहा यही ठीक है। परन्तु यह सलाह लक्ष्मणजी को अच्छी नहीं लगी लक्ष्मणजी कहते हैं हे नाथ! दैव का क्या भरोसा!  मन में क्रोध कीजिए और समुद्र को सुखा डालीए। यह दैव तो कायर के मन का एक आधार है। आलसी लोग ही दैव दैव पुकारा करते हैं।
         कहे लंकेस सुनहु रघुनायक। कोटि सिंधु सोषक तव सायक ॥
         जद्यपि जदपि नीति असि गाई। बिनय करिअ सागर सन जाई॥
         नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोिअ सिंधु करिअ मन रोसा ॥
         कादर मन कहु एक अधारा। दैव दैव आलसी पुकारा॥
     भगवान राम हँस कर कहते हैं कि ऐसा ही करेंगे, मन में धीरज रखो। ऐसा समझाकर पहले समुद्र को प्रणाम करते हैं और समुंद्र से विनय करते हैं तीन दिन बीत जाते है, किन्तु जड समुद्र विनय नहीं मानता। तब श्रीरामजी क्रोध से बोलते हैं हे लक्ष्मण! तुमने ठीक कहा लाओ मेरा धनुष बाण। मुर्ख से विनय और कुटिल से प्रीति और कंजुस से नीति कहने से कुछ फायदा नहीं है। मैं अग्नि बाण से इस समुद्र को सोख डालूँगा। ऐसा कहकर रामजी ने धनुष चढाया यह बात लक्ष्मणजी के मन को बहुत भायी। अग्नि बाण संधान करते ही समुद्र के हृदय में अग्नि की ज्वाला उठी और जब उसने सब जीवों को जलते जाना तो सोने के थाल में मणियों को (रत्नाेंको) भरकर अभिमान छोडकर ब्राम्हण के रुप में प्रगट हुआ।
     यहाँ पर साधुमत और लोकमत की बात आती है। साधुमत अपराधी का कल्याण चाहता है। जबकि लोकमत अपराधीको दण्डनीय ठहराता है और दण्ड देता है। जहाँ संतमत और लोकमत में परस्पर विरोध हो व लोकहानि का कारण हो वहाँ संतमत श्रेयस्कर बताया गया है।
     विभीषण रामजी को समुद्र से विनय करने की सलाह देते हैं तदनुसार रामजी हाथ  जोडकर अनुनय विनय करके समुद्र से पार जाने का रास्ता माँगते हैं। यह आचरण साधुमत के अनुकूल हुआ, परन्तु अपनी याचना को निष्फल होने पर क्षुब्द होकर ''संधानेउ प्रभु बिसिख कराला। उठी उदधि उर अंतर ज्वाला॥
     धनुष बाण संधान करते हैं यह लोकमत के अनुकूल हुआ, क्याेंंकि लोकमत के अनुसार शठ से बिनय करना ही भूल है, ''सठ सन विनय कुटिल सन प्रीति।''
     लक्ष्मणजी लोकमत के उत्कृष्ट अनुयायी चित्रित किये गये हैं। इनकी साधुमत पालन की प्रवृत्ति बहुत ढुँढने पर मिले तो मिले। जब देखो तब वे लोकमत के अनुसार तुरन्त कमर कसे तैयार रहते हैं। समुद्र शोषन के लिए राम ने बादमें जिस लोकमत का अनुसरन किया उसे लक्ष्मणजी ने पहले ही बता दिया था।
         नाथ दैव कर कवन भरोसा। सोखिय सिंधु करिय मन रोसा॥
         कादर मन कहुँ एक आधारा । दैव दैव आलसी पुकारा॥
     गोस्वामीजी का कुछ ऐसा निष्चित विचार अवगत होता है कि संतमत का पुट लोकमत के साथ तबतक अवष्य लगा रहना चाहिए जबतक कि प्रथम का द्वितीय से विरोध नहीं होता। परन्तु जहाँ वे परस्पर विरोधी हों वहाँ लोकमत को पश्रय मिलना चाहिए। इस दशा में साधुमत की किंचित उपेक्षा निंदनीय नहीं। दूसरे शब्दों में यों भी कहा जा सकता है कि व्यवहार क्षेत्र में सर्वदा व सर्वथा अणुकरणीय है लोकमत किन्तु साधना क्षेत्र में साधुमत की प्रतिष्ठा होनी चाहिए। लोकमत और साधुमत का ऐसा ही समन्वित रुप समाज को हराभरा रख सकता है।
     वैयक्ति साधना क्षेत्र में गोस्वामीजी साधुधर्म की चाहे जितनी भी सराहना करें पर लोकधर्म कि पुष्टि के लिए वे साधुधर्म को गौण ही बताते हैं। किसी असहाय अबला की रक्षा करने के प्रयास में प्राणोत्सर्ग कर देनेवाला अध्यात्मिक मुक्ति प्राप्त करनेवाले साधक से अधिक महत्वपूर्ण है। यह है तुलसी कि लोकहितकारिणी दृष्टि। देखिए -
         ''मुये मुकुत, जीवत मुकुत, मुकुत, मुकुत हूँ बीच।
         तुलसी सबही से अधिक गीधराज की मीच॥ (दोहावली 255)
     रामजी ने लोकमत का कैसा निर्वाह किया वह भी दृष्टव्य है। तुलसीदासजी के ही शब्दो में राम लोकमत के वशीभूत है-
         लोक एक भाँति को त्रिलोकनाथ लोक बस,
         आपनो न सोच, स्वामी सोच ही सुखात हौं॥ (कवितावली 123)
     (गोस्वामीजी कहते हैं कि प्रभो! आप त्रिलोकीनाथ होकर भी लोक के अधिन हैं किन्तु मुझे अपनी चिंता नहीं है। मैं तो प्रभु के सोच में ही सुखा जाता हूँ (कि कहीं लोग यह नहीं कहने लगे कि रामजी कलियुग में अपना स्वभाव छोडकर करुणारहित हो गये।)
     राम लोकोत्तर वल्लभ थे। गृहस्थाश्रम में ऐसा लोकोत्तर पति मिलना कठिन है। सती साध्वी स्त्रियों की अभिलाषा राम जैसा पति पाने की होती है। राम का सीता पर अलौकिक एवं अनहद प्रेम था। प्रत्येक क्षेत्र में राम को लोकोत्तर मानने के लिए लोग तैयार होंगे। परन्तु यह बात कदापि नहीं मानेगे कि राम लोकोत्तर पति थे। क्योंकि राम ने सीता का त्याग किया है। परन्तु हमें विदित है कि एक व्यक्ति के कहने से राम ने सीता का त्याग नहीं किया। अधिकांश नगरवासीयोंके मन में सीता के प्रति शंका निर्माण होने लगी। और उसकी चर्चा मुहल्ले मुहल्ले में, गली गली में होने लगी, तो राम यह बताने के लिये कि कर्तव्य और भावना में कर्तव्य को प्रथम स्थान मिलना चाहिए इसलिए सीता का त्याग किया है। त्याग करनेके बाद भी उनका प्रेम अलौकिक है।
     राम राजा थे। राम ने पत्नी का त्याग नहीं किया, परन्तु राजा ने रानी का त्याग किया है। दाम्पत्य धर्म और राजधर्म के बीचमें संघर्ष खडा होता है कि कौनसा धर्म श्रेष्ठ हो? राम ने राजधर्मको श्रेष्ठता प्रदान करने का निष्चय किया। कुटूम्ब और राष्ट्र के कल्याण का प्रष्न उपस्थित होते ही राष्ट्र को प्रथम स्थान मिलना चाहिए। क्योंकि राजधर्म में अगणित लोंगों का कल्याण निहित होता है और कुटूंब में केवल अपने ही कल्याण की भावना होती हैं। राम ने राष्ट्र के हित के लिए अपने वैयक्तिक सुख का बलिदान किया और सीता ने इस कार्य में उन्हे सहकार प्रदान किया। राजधर्म के लिए राम ने पत्नी का नहीं बल्कि रानी का त्याग किया है। यही तो वििशष्टता है।  राम ने यदि पत्नी का त्याग किया होता तो राम दूसरी स्त्रीके साथ विवाह कर लेते। यज्ञ के प्रसंग में 'धर्म शास्त्र के अनुसार आप दूसरी पत्नी कर सकते हो ऐसा सब लोग कहते हैं। परन्तु उस समय राम ने स्पष्ट शब्दो में कहा ''राम के हृदय सिंहासन पर एक को ही स्थान है और वह एकमात्र सीता है। सीता कलंकित है ऐसी उनकी मान्यता नहीं थी। राम का सीता त्याग बलिदान की उच्चतम भावना का प्रतीक है। यदि राम सीता को कलंकित समझते तो यज्ञ की दिक्षा लेते समय सीता की ही स्वर्ण मूर्ति बनाकर अपने पास न बिठाते। राम के गुण अपने जीवन में लाने का सतत प्रयास करो। राम का आदर्श सदैव अपने सामने रखो। अन्यथा रामचरित का अध्ययन निरर्थक है।
     इस प्रकार संतमत और लोकमत का पूर्ण रुपसे विचार होना चाहिए। जहाँ संतमत से बात न बनती हों वहाँ लोकमत के अनुसार चलना चाहिए। भगवान राम ने समुद्रपर क्रोध करके धनुष्य संधान किया उसके पीछे उनकी भूमिका समझना आवष्यक है। यहाँ रामजी का क्रोध विकासात्मक क्रोध है। क्रोध दो प्रकारका होता है। पहला विकारात्मक और दूसरा विकासात्मक। विकारात्मक क्रोध हमारा स्वार्थ बिगडता है तब आता है। परन्तु विकासात्मक क्रोध में उसे सुधारने की भूमिका होती है। माँ अपने पुत्र पर क्रोध करती है उसमें उसकी यह भूमिका होती है कि पुत्र सुधर जाए। विकासात्मक क्रोध आता है और झटसे षांत हो जाता है। कारण निर्माण हुआ क्रोध बाधा जनक  नहीं होता। उसके लिए गोस्वामी केले का दृष्टांत देते है।
         काटेहि पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
         विनय न मान खगेस सनु डाटेहि पइ नव नीच॥ (सुन्दरकाण्ड 58)
     केला काटने पर ही फलता है। तो यहाँ काटना यह जो क्रोध की भूमिका है उसके पीछे भाव यह है कि बिना काटे वह फलेगा नहीं इसीलिए वह आवष्यक है। पहले हमारी भूमिका संतमत की होनी चाहिए यदि उससे बात न बनती हो तो लोकमत का आश्रय लेना चाहिए। भगवान राम ने भी यही काम किया। पहले संतमत के अनुसार समुंद्र से विनय की परन्तु जब बात बनी नहीं तो लोकमत का आश्रय लेकर धनुष बाण चढाकर क्रोध किया परन्तु यहाँ क्राेंध की भूमिका भी समुद्र को भय दिखाकर सुधारणा था। क्योंकि कभी कभी भय के बिना प्रीति नहीं होती। गोस्वामीजीने लिखा है- ''बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।'' (सु. 57) भय का प्रयोग कभी कभी ठीक है परन्तु प्रीति भय पर आधारित नहीं होनी चाहिए। भगवान से प्रेम प्रीति से होना चाहिए। भगवान के लिए बौध्दिक प्रेम (Intellectual love towards god) खडा होना चाहिए। शुरुवात में भय से प्रभु का संबध होता हो तो चलेगा। क्योंकि अग्रेजी में कहते हैं (Fear of god is begining of Wisdom) । भगवान के साथ भाव पूर्ण प्रीति से संबंध होना चाहिए । यह श्रेष्ठ संबंध है।
     समुद्र अपना बचाव करते हुये कहता है कि प्रभु! इसमें मेरा कोई दोष नहीं है। क्योकि आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी इन सब की करनी स्वभाव से ही जड है। इसलिए मेरे अपराध को आप क्षमा किजिए। आपकी प्रेरण्ाा से ही माया ने इन्हे सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है। सब ग्रंथो ने यही गाया है। जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है वह उसी प्रकार रहने में सुख पाता है। प्रभु! मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनायी हुई है। पंचमहाभूत कि भाँति ही ढोल, गँवार, शुद्र, पशु और नारि इनका सभी का स्वभाव भी जड है। आपके प्रताप से मै सूख जाऊँगा इसमें मेरी बडाइ (मर्यादा) नहीं है। मेरी मर्यादा नहीं रहेगी।
         सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे। छमहु नाथ सब अवगुन मेरे॥
         गगन समीर अनल जल धरनी । इन्ह कहि नाथ सहज जड करनी॥
         तव प्रेरित माया उपजाए । सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥
         प्रभु आयसु जेहि कहँ जस अहई। सो तेहि भाँति रहे सुख लहई॥
         प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्ही। मरजादा पुनि तुम्हरि कीन्ही ॥
         ढोल गँवार सुद्र पसु नारी। सकल ताडना के अधिकारी॥
         प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई। उतरिहि कटकु न मोरि बडाई॥
         प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई । करौ जो बेगि जो तुम्हहि सोहाई ॥
                                       (सु. 59-1/8)
     वाल्मीकि रामायण में भी समुद्र यही बात कहते हैं कि पंचमहाभूत पृथ्वी वायु आकाश जल और तेज ये सर्वदा अपने स्वभाव में स्थित रहते हैं, अपने सनातन मार्ग को कभी नहीं छोडते । सदा उसीके आश्रीत रहते है।
         पृथ्वीवायु राकाशमापो ज्योतिश्च राघव।
         स्वभावे सौम्य तिष्ठन्ति शाश्वत मार्गमाश्रिता:॥ (वा.रा.यु.काण्ड 22-26)
     दण्ड के अधिकारी कौन है? इस बारेमें वाल्मीकि रामायण में लिखा है- नल भगवान राम से कहते हैं कि संसार में अकृतज्ञों के लिए दण्डनीति का प्रयोग ही सबसे बडा अर्थसार्थक है। कृतघ्नी व्यक्ति को क्षमा सान्त्वना के प्रयोग को धिक्कार है। वह कहता है कि इस भयानक समुद्रको आपके पूर्वज सगर के पुत्रोंने ही बढाया है फिर भी इसने कृतज्ञता से नहीं अपितु दण्ड के भय से आपके सामने प्रस्तुत हुआ है-
         दण्ड एव वरो लोके पुरुषस्येति मे मति:।
         धिक् क्षमामकृतज्ञेषु सान्त्वं दाानमथापि वा ॥ (वा.रा.यु.काण्ड 22-49)
     कृतघ्नता यह महा पाप है ऐसा हमारे शास्त्रकारोंका कहना है। बाकी सब पापोंको प्रायश्चित है परन्तु हमारे धर्मशास्त्र के अनुसार कृतघ्नी को प्रायश्चित नहीं है। लिखा है-
         ब्रम्हघ्नेच सुरापेच चोरे भग्नव्रते तथा।
         निष्कृतिर्विहिता लोके कृतघ्ने नास्ति निष्कृति: ॥
     समुद्र अपना बचाव करते हुए कहता है- कि प्रभु! पंचमहाभूत आप द्वारा बनाये हुए प्रकृति अनुसार स्वभाव से ही जड है और उसी मर्यादा के पालन अनुसार मुझसे यह अपराध हो गया तथा आगे अपने बचाव में कहता हैं कि मेरी तरह जैसे ढोल, गँवार, सुद्र, पशु और नारि इनका भी स्वभाव जड है। परन्तु प्रभु ये भी सभी आपकी कृपा के पात्र हैं इसीलिए मुझे अपने अपराधके लिए क्षमा करें। व कृपा करें आप जैसा कहंगे वैसा ही मैं करुँगा। समुद्र ने जडवाद के पाँच द्रष्टांत दिये है इनमें ढोल, गँवार, सुद्र, पशु और नारि ऐसा क्रम बताया है जिसमें ढोल यह एक जड है शेष चार गँवार, शुद्र, पशु और नारि ये चेतन हैं। गोस्वामीजी का कहना है कि यह जो चार चेतन हैं उनका जीवन ढोल की तरह खोखला हो गया है एवं उनकी बुध्दि में जडता आ गयी है। जडवाद इनका स्वभाव बन चुका है।
     जड यानी जिसको ज्ञान व स्वरुप की संवेदना नहीं वह। जिसकी स्वयं की समझ नहीं है, जो स्वयं ज्ञानरुप नहीं है वह जड है। ज्ञान यह बादमें होनेवाली प्रक्रिया है
     गोस्वामीजी ढोल के साथ गँवार शब्द प्रयुक्त करते हैं। यहाँ गँवार शब्द वैश्य को संबोधित करते हुए लिखा गया है। आज वैश्य जड बुध्दि का एवं भोग लंपट बन गया है। यंत्रो के निरन्तर संपर्क के कारण मानव जीवन जड, भोगवादी व भावशुण्य बन गया है। आज वैश्य भोगलंपट बन गया है आज वह केवल व्यापार व भोग में रममाण होकर भौतिक जीवन में आसक्त बन गया है। वह भगवान के पास जाता है तो पैसे के लिए ही जाता है। इसीलिए तो सत्यनारायण भगवान की कथा में साधु बनिये की कहानी आती है।
     गोस्वामीजी आगे शुद्र के साथ पशु शब्द प्रयुक्त करते हैं। इसका आशय यह है कि आज शुद्र भी जडवाद से त्रस्त बनकर पशु जैसे ही भोग जीवन में लिप्त है। खाओ, पीओ और मौज करो यही तो जडवाद है। यही तो पशु जीवन है। आज वैश्य और शुद्र दोनों ही इस जडवाद से ग्रस्त हैं। जडवाद यह चार्वाक आदि लोगों की विचारधारा है। जो मनुष्य केवल खाना, पीना और सोना इतना ही जीवन मानता है वह बिना पुँछ का पशु ही है। जो भगवान को जानने का प्रयत्न नहीं करता वह गँवार एवं शुद्र ही तो है।  शास्त्रकार लिखते हैं-
         आहार निद्रा भय मैथुनंच सामान्य मेतत् पशुभि: नरानाम् ।
         धर्मोहि तेषां अधिक: विशेष: धर्मेण हि नाह: पशुभि: समान:॥
     स्त्रीयाँ भी भोग में आसक्त हुई दृष्टिगोचर होती है। अधिकतर स्त्रीयाँ भौतिक प्रसादनों से शरीर को चित्रित करना रंगाना तथा सुंदर व आकर्षक लगेगा ऐसा करना। भोग और भौतिक जीवनमें उनकी आसक्ति होती है। उनकी मानसिक बनावट ही कुछ ऐसी होती है।
     स्त्री निद्यं, तुच्छ नहीं है, जिस प्रकार जीवात्मा कभी पुरुष (नर) देह धारण करता है वैसा ही कभी स्त्री देह धारण करता है। कितनी ही बार उसे गलत धारणासे दबाया गया है। पुराने जमाने में स्त्री िशक्षा से वंचित हुयी, साधना से वंचित हुई, इस प्रकार स्त्री का अध:पतन हुआ।  स्त्री जीवन में मुक्ति नहीं है ऐसा नहीं है।
     समुद्र का कहना है कि गँवार (वैश्य), शुद्र और नारि ये ताडन के अधिकारी है। ताडन का अर्थ जैसा मारना होता है वैसा जानना भी होती हैं। जैसे व्यवहार में हम बोलते हैं मैने उसे ताड लिया यानी जान लिया। यहाँ ताडना शब्द का प्रयोग गोस्वामीजी ने जानना इस अर्थ से ही प्रयुक्त किया है ऐसा हो सकता है। आज उनकी उपेक्षा करनेकी अपेक्षा आवष्यकता है इन्हे भक्ति की सही समझ एवं ज्ञान की तो ये भी प्रभु की कृपा के पात्र बन सकते हैं। मोक्ष प्राप्त कर सकते है। गोस्वामीजी तो जड चेतन सभी में ब्रम्ह के दर्शन करते हैं वे कहते हैं-
         आकर चारि लाख चौरासी  जाति जीव जल थल नभ बासी॥
         सीय राममय सब जग जानी। करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
                               (बालकाण्ड -8 /1-2)
     तुलसीदासजी कहते हैं कि चौरासी लाख योनियों मे चारों प्रकारके प्राणि (स्वेदज, अण्डज, उद्भीज और जरायुज) सबको सीयाराममय जानकर मैं दोनों हाथ जोडकर नमस्कार करता हूँ। इतना ही नहीं वे तो जड चेतन सब में प्रभु के दर्शन करते हैं, वे कहते हैं-
         अचर चर रुप हरि सर्वगत सर्वदा बसत (वि.प. 47)
     श्रीहरि जड चेतन में सदा रमते हैं। तो फिर वे इन सबको दण्ड के अधिकारी हैं ऐसा कैसे कह सकते हैं? इसलिए उनके भावोंको सही अर्थ में समझने का प्रयत्न करना चाहिए।
     स्त्री, वैश्य, एवं शुद्र भी अच्छी गति प्राप्त कर सकते हैं। इनका स्वभाव जडवादी होते हुये भी ये भी परम गति को प्राप्त करते हैं यदि इनको योग्य ज्ञान तथा प्रेम दिया गया तो। यही समुद्र का कहना है। भगवान श्रीकृष्ण ने भी गीता में कहा है-
         स्त्रियो वैष्या स्तथा शुद्रा स्तेऽपि यान्ति परां गतिम॥ (गीता 9-32)
     (स्त्री, वैश्य, शुद्रादि भी मेरी शरण लेकर परम गति को प्राप्त होते हैं। ऐसा भगवान का कहना है) गोस्वामीजीने स्त्री, वैश्य और शुद्र को भगवान श्रीकृष्ण के भाँति एक ही पंक्ति में रखा है कारण ये नैसर्गिक रुपसे भोगवादी और भौतिकवादी होते हैं।
     वास्तवमें भारतीय स्त्री वेदान्त की चर्चा करती हुई दिखाई देती है। गार्गी-मैत्रेयी का उल्लेख तो वेदाें-उपनिषदाें में है ही। रामायण में अरुन्धती-सीता ने की हुई चर्चा आज के स्नातक (Graduate) भी नहीं कर सकते। वैदिक विचारों का लोप होने से स्त्री का एक एक अधिकार छिन लिया गया। स्त्री मुक्ति की, िशक्षा की, साधना की अधिकारी नहीं, उसने पति के घर की देहली नहीं लांघनी ऐसी स्थिति निर्माण की गयी । इसी कारण स्त्री के संबंध में अनेक प्रष्न खडे हुए। वेदान्त का विचार है कि स्त्री को विकास के लिए अनुकूल िशक्षा मिलनी ही चाहिए। स्त्री िशक्षाके बारे में जीवात्मा का मूलभूत विचार न कर व्यावहारिक दृष्टि से विचार करने के कारण समस्या खडी हुई है। वेदान्त का विचार है कि स्त्री को व्यक्ति ही रहना चाहिए और विकास के लिए उसे अनुकूल िशक्षा मिलनी चाहिए। स्त्री विषय नहीं व्यक्ति है। परन्तु स्त्री व्यक्ति न रहकर विषय बन गयी । Touch me not में आ गयी। इसका क्या कारण है? स्त्री सतत कहती है कि मैं असमर्थ हूँ इसलिए वह रक्षणीय है गोपनीय है। अत: स्त्री व्यक्ति नहीं परन्तु उपभोग का विषय बनी। स्त्री को विक्रेता Saleswoman की नौकरी मिलती है। वह होिशयार है इसलिए नहीं मिलती, तो वह दो ग्राहकोंको अधिक आकर्षित कर लेती है इसलिए। मनुष्य में स्थित पशुत्व भावनाको जागृत करके वस्तु या माल बेचा जाता है। यह उसका क्रुर अर्थ है। यह अधम से अधम और पशुत्व की ओर ले जानेवाले समाज का लक्षण है। स्त्री को अपनी कुशलता के कारण नोकरी नहीं मिलती तो वह स्त्री है इसलिए मिलती है।
     स्त्री देह को स्त्री भी विषय समझती है। इसीलिए आज की फिल्मों में नायिकायें बडचढकर अंग प्रदर्शन कर रही है। ऐसी स्थिति होने के कारण स्त्री ने कभी अपने मन बुध्दि को समझाने का प्रयत्न नही किया। वह केवल शरीर का शृंगार करने का ही प्रयत्न करती है। स्त्री के लिए शृंगार Makeup के प्रसाधन है। स्त्री तो माया है। उसको तो ऐसा करना ही चाहिए। अर्थात् शरीर सजाना चाहिए। शरीर को सजाने की ना नहीं है। उसमें भी आनन्द है, परन्तु स्त्री को शृंगारित करने में ही स्त्री जीवन की परिसमाप्ति है। यह मान्यता गफलत भरी है। स्त्री स्वयं अपने शरीर को उपयोग का साधन मानती है। इसलिए मन बुध्दि का शृंगार करना, उसका विकास करना, यह बात स्त्री के जीवन में नहीं आती। स्त्री जबतक स्वयं अपने को ऐसा मानती है  तबतक वह अनध्यात्मिक है। इसीलिए गोस्वामीजी का कहना है स्त्री भी मुक्ति की अधिकारी है। इसलिए उसे ताडना यानी जानना चाहिए तथा उसे योग्य मार्ग दर्शन करना चाहिए। असंख्य जन्माेंसे स्त्री को संभाला जा रहा है। इससे वे शक्तिहीन बन गई हैं। असमर्थ बन गई हैं। स्त्री को उपभोग का विषय ठहराया की तुम्हारी दृष्टि अपवित्र बनी। इसलिए सौंदर्य की दृष्टि रखकर उसके प्रति पवित्रता की भावना रखनी चाहिए । पवित्र वस्तु का रक्षण नहीं करना पडता। उसका स्वयंभू रक्षण होता है। इसलिए वैदिकोंने स्त्री की ओर देखने की दृष्टि बदलने का आग्रह रखा हैं । पवित्रता आते ही अपने आप रक्षण होता है।
     स्त्री में सुन्दरता, कोमलता, वात्सल्य, समर्पण और लज्जािशलता की िशक्षा मिलनी चाहिए। आज की समस्या यह है कि स्त्री में अस्मिता जागृति आ गयी है। स्त्री में अस्मिता जागृत हुई परन्तु उसको योग्य मार्गदर्शन नहीं मिला इसलिए मैं कोई हूँ ऐसा स्त्री को लगने लगा। उससे समर्पण नहीं होता है। इसीलिए गोस्वामीजी कहते हैं कि, (गँवार) वैश्य, (पशु) शुद्र और नारि को तुच्छ मत समझो। वे भी अपना विकास साध सकते हैं, आवश्यकता है उन्हें समझने की, जानने की व योग्य मार्गदर्शन करने की।
     गोस्वामीजी ने शुद्र और नारि दोनों को भक्ति के अधिकारी घोिषत किए हैं। उन्होने रामचरितमानस में निम्न वर्ग एवं नारि जाति की भक्ति भावना का आदर्श भी दिखाया है। निषाद और शबरी की भक्ति का महत्वपूर्ण स्थान उन्होने दिखाया है। भगवद्भक्ति में लीन प्राणि सामाजिक व्यवस्था की तुलापर नहीं तौला जाता। अर्थात् जिसने अपने आप को भगवद् चरणारविन्दमें सवर्था अर्पण कर दिया वह चाहे कोई भी क्यों न हो अपने कर्मों में प्रवृत रहते हुये निरन्तर भगवद् प्रेम में निमग्न रहते रहते अन्त में भगवद् प्रेम का प्रतीक ही बन जाता हैं। समाज उसे परमोत्कृष्ट ही स्वीकृत करेगा। इस प्रकार निषाद जैसे शुद्र व शबरी जैसी नारि भी भक्ति करके भगवद् प्रेम प्राप्त कर सकते हैं ऐसा गोस्वामीजी का कहना हैं ।
     स्त्री के रुप में मोहवश मनुष्य पतंगे के समान आसक्त बनकर कुद पडता है और मर जाता है। केवल पतंग ही मरता नहीं, दीपक भी बुझ जाता है। इस प्रकार स्त्री पर आसक्त होने वाला पुरुष तो मरता ही है परन्तु वह स्त्री को भी मार डालता है। जीवन में जब भोग के बिना कोई दृष्टि ही नहीं रहती तब मनुष्य समाप्त हो जाता है।
     स्त्री एक माया है। उसमें आसक्त होने वाला मर जाता है। भारतीय संस्कृती में कबीर आदि संतो ने नारि कि निंदा की है। तुलसीदासजी मर्यादावादी थे और वे सोंचते थे कि समाज संचालन में नारि के लिए पातिवृत ही प्रमुख है। इसी पर उन्होने जोर दिया। रामचरितमानस में ऐसे अनेकों उदाहरण है, उदाहरण स्वरुप, (बालकाण्ड-101-3, अरण्यकाण्ड 4-6, 8, 9, 10, 16, 18, उत्तरकाण्ड 126-5) ।
     तुलसीदासको भी तो प्रेरणा देनेवाली नारि ही थी। रत्नावली ने गोस्वामीजीसे इस प्रकार कहा -
         अस्थि चर्म मम देह मम, तामे ऐसी प्रीति।
         ऐसी जौ रघुनाथ सों, होत न तब भवभीति॥
     शारीरिक एवं यौवनोचित सौंन्दर्यपर मुग्ध तुलसीदासजी के लिए रत्नावली की यह व्यंगोक्ति उनके जीवन में नविन धारा बनकर आई और उनको तुलसी से भक्त तुलसीदास बना दिया। (गँवार) वैश्य, (पशु) शुद्र और नारि को सुधारने का उपाय शस्त्र (दण्ड) नहीं शास्त्र है। हृदय परिवर्तन यही उपाय है।
     मूर्ख के लिए औषधि नहीं है ऐसा लोग कहते हैं। परन्तु यह झूठी बात है। ऐसा मानो तो उसमें अज्ञान की शक्ति अधिक मानी जाएगी। ज्ञान से अज्ञान का मूल्य अधिक नहीं है। मूर्ख के लिए औषधी होनी ही चाहिए। मूर्ख के लिये औषधी यानी गीता, उपनिषद ये ही औषधीयाँ है। अज्ञान पर औषधी का नाम गीता-उपनिषद ।
     श्रीकृष्ण भगवान समाज में तत्वज्ञान ले गए। वह प्रेम से ले गये है। एक हाथ में प्रेम और दूसरे हाथ मे वेद गीता। हमको ऐसा लगता है कि किसी को सुधारना हो तो बेत से मारो तो वह सुधर जाएगा परन्तु इसमे शंका है। दैवि विचारोंका प्रचार करने के लिए हाथ में शस्त्र चाहिए ऐसा लोग कहते हैं। हाथ में पिस्तोल रखकर कहा 'संध्या करो' फिर देखो संध्या करते है या नहीं । हाथ में शस्त्र लेकर दूसरोंको डराकर मनुष्य धर्म का प्रचार करेगा तो समाज का दृष्टिकोण बदलेगा या नही, जीवन बदलेगा या नही इसकी शंका है।
     शस्त्र बडा या शास्त्र बडा? एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ मे कुरान। बोल मेरा कुरान मानता है या नही? नहीं मानता तो गर्दन काटता हूँ। ऐसा हुआ तो कुरान मे शक्ति नहीं है तलवार में शक्ति है। इसी प्रकार एक हाथ में बंदूक और दूसरे हाथ में बायबल लेकर बंदूक के बलपर बायबल का प्रचार होगा तो बंदूक में शक्ति है बायबल में नहीं। हाथ में कृपान लेकर ग्रंथ साहिब का प्रचार होगा तो कृपाण में शक्ति साबीत होती है। मन बदलना भिन्न बात है। श्री कृष्ण भगवान की ज्ञान पर निष्ठा थी। इसीलिए उन्होने कहा कि मनुष्य की अज्ञान की अपेक्षा ज्ञान पर निष्ठा बढानी चाहिए। श्रीकृष्ण भगवान समाज में तत्वज्ञान ले गये। वह प्रेम से ले गये हैं। प्रेम और भाव से ही मनुष्य को बदला जा सकता है। (गँवार) वैश्य, (पशु) शुद्र और नारि इन भोगवाद में जडे जीवों को सुधारने का उपाय शस्त्र नहीं शास्त्र यानी प्रेम भाव व ज्ञान है। प्रेम और भाव से इन्हें सुधारा जा सकता है। इसी प्रकार पशु भी समाजोपयोगी है इसलिए उन्हे मत मारो ऐसा हमारे शास्त्रकार समझाते है। गाय के सच्चे उपासक गोपालकृष्ण थे। गोपाल कृष्ण ने गाय को माता कहा है। गाय की महिमा उन्होने बढाई है। कृष्ण ने गाय में पवित्रता का आरोपन किया है और कहा गाय पवित्र है। इस प्रकार पशु को मारना कहाँ से भी उचित नही है। गोस्वामीजी ने जो बात कही है उसे सही अर्थ में समझने का प्रयत्न करना चाहिए नहीं तो अर्थ का अनर्थ होने से नुकसान होता है।
     भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि किसी को कम-बश या हीन नहीं समझना चाहिए। श्रीकृष्ण भगवान ने स्त्रीयों के द्वारा आषश्चर्यजनक कार्य कर दिखाया है। उन्होने कहा कि स्त्रीयोंको बदलोगे तो जगत बदल जाएगा। भगवान ने बचपन में यह प्रयोग गोकुल में कर दिखाया है। गोकुल का दुध गोपीयां मथुरा में बेचने जाती थी। गोपियों को खुब पैसा चाहिए यह ठीक है परन्तु गाेंकुल वासीयोंको दुध चाहिए वह नहीं मिलता था। गोपबालक दुध के बिना ही रह जाते थे। दुध से उनका पोषण नहीं हुआ तो वे पुष्ट कैसे होंगे? श्रीकृष्ण के लिए वह असहृय हुआ। उन्होने विचार किया कि गोकुल के बालकोंको गोरस मिलना चाहिए। उन्होने मथुरा में दूध बेचने के लिए जानेवाली गोपियोंको रोकना प्रांरभ किया उनको समझाना शुरु किया। और गोपियां श्रीकृष्ण के समझानेपर लौटने लगी। जो गोपियाँ नहीं मानती थी उनके मटकियों को गोपबालों द्वारा तोडने लगे। यह गोपाल कृष्ण कि बाललीला नहीं थी। उसके पीछे एक दीर्घ विचार था। समाज की एकता छुपी थी। इस प्रकार संपूर्ण गोकुल को उन्होने बदल दिया। इस प्रकार नारि को योग्य मार्गदर्शन मिला तो वह सुधर सकती है।
     समुद्र ने अपने बचाव मे पंचमहाभुतों की जडता का उदाहरण देते हुए और पाँच उदाहरण जड प्रकृतिसे युक्त ढोल, गँवार, शुद्र पशु और नारि का देते हैं। उसी क्रम में इन पाँचों का उदाहरण देने के पीछे क्या औचित्य है इसका मंथन करना आवष्यक है।
     समुद्र शायद यह कहना चाहता है कि त्रिगुणात्मक प्रकृति भी जड स्वरुप है और उसके अनुसार सत्व, रज और तम इन तीन गुणों से युक्त वैश्य (ढोल, गँवार), शुद्र (शुद्र, पशु) और नारि का स्वभाव भी जडता से युक्त है। आपने मुझे दण्ड देने के लिए धनुष्य बाण उठाया यह ठीक ही किया परन्तु इन त्रिगुणात्मक जड प्रकृति से युक्त वैश्य, शुद्र और नारि पर आप अनुग्रह करें, कृपा करें, योग्य मार्गदर्शन करें तो ये सुधर सकते है।
     समुद्र की बात पर ध्यान देने पर पता चलता है कि समुद्रने पंचमहाभूतों की जडता समझाकर अपना बचाव तो किया ही है साथ ही साथ वैश्य, शुद्र और नारि इनकी भी जडता समझाते हुए इनके बचाव के लिए प्रार्थना की है ऐसा हो सकता है। हम व्यवहार में भी ऐसा ही बोलते हैं न कि, ठीक है, यह अपराध मुझसे हुआ है इसकी सजा मुझे दो। परन्तु यदि हम आगे ओर किसी का नाम लेते हैं तो यही कहते हैं कि ये बाकी सब निर्दोष हैं। इन्हे सजा मत दो। यही भूमिका यहाँ समुद्र की दृष्टिगोचर होती है। ऐसा मेरा अपना अभिप्राय है।
     शास्त्रकारोंने त्रिगुणात्मक जड प्रकृति के तीन प्रकार समझाये हैं- सत्व, रज और तम। पहला गुण है सत्व। सत्व अर्थात् ज्ञान और सुख दूसरा रज, अर्थात् कर्म और दु:ख और तीसरा तम अर्थात् अज्ञान और आलस्य। गोस्वामीजी प्रथम ढोल के साथ गँवार शब्द प्रयुक्त करते हैं। इसका आशय यह है कि वैश्य आज सुख के पीछे भागता हुआ ढोल कि तरह जड बुध्दि का बन गया है। परन्तु यदि उसे ज्ञान दिया जाय तो वह सुधर सकता है। इसलिए ढोल (गँवार) यानी वैश्य यह सत्वगुणात्मक प्रकृतिसे युक्त जड बना हुआ है। दूसरा है 'शुद्र' (पशु),। आज शुद्र का जीवन पशु जीवन के समान बना हुआ है। वह रजोगुणसे पीडित है। केवल खाओ पिओ और मौज करो यही उसका जीवन है। इसलिए दु:खी बना हुआ है। तीसरा गुण है तम। नारि यह तमोगुण प्रकृतिसे युक्त है क्योंकि वह अज्ञान से युक्त है। नारि को माया कहा गया हैं। माया का अर्थ है अविद्या, अज्ञान। इसीलिए समुद्र ने भगवान से यह प्रार्थना कि है कि प्रभो! त्रिगुणात्मक जड प्रकृतिसे युक्त वैश्य, शुद्र और नारि पर आप कृपा करें। इन्हे योग्य मार्गदर्शन करें तो इनका कल्याण हो सकता है। इनका जीवन सुधर सकता है। अब आप मुझे आज्ञा करें, आपको जो उचित लगे वह मै करुँ।
     रामजी वानरों की सेना उस पार कैसे पहुँचेगी इसका उपाय समुद्र से पूछते है। समुद्र कहता है प्रभो! आपकी सेना में नल और नील दो वानर भाई है उन्होने बचपन में ऋषि से अशीर्वाद पाया था। उनके स्पर्श कर लेने से भारी भारी पहाड भी आपके प्रताप से समुद्र पर तैर जाएँगे। और मैं भी अपने बल के अनुसार सहायता करुँगा। रामजी कहते हैं यह तो ठीक है परन्तु अब मुझे यह बताओ कि यह चढा हुआ बाण तो व्यर्थ नहीं जा सकता इसे कहाँ छोडूं। तो समुद्र कहता है प्रभो! उत्तर तट पर दुष्ट मनुष्य राक्षस रहते हैं उन पर छोड दीजिए जिससे दुष्टों का वध हो जाए। इतना कहकर समुद्र भगवान के चरणों की वंदना करके चला जाता है। समुद्र अपने घर चला गया, श्रीरघुनाथजी को उसकी सलाह अच्छी लगी। तुलसीदासजी कहते हैं- कि मैने रघुनाथजीके गुणसमुहों का गुणगान अपनी बुध्दि के अनुसार किया है।  जो भी भक्त आदर और भाव के साथ इस भगवद्लीला एवं गुणो का (जो जीवों को मंगलता प्रदान करनेवाले है) चिंतन, मनन, पठन करेगा एवं आदरसहित सुनेगा वह बिना किसी साधनके भवसागर तर जाएगा।
         सकल सुमंगल दाय रघुनायक गुण गान।
         सादर सुनहि ते तरहिं भव सिंधु बिना जल जान॥ (सुन्दरकाण्ड 60)
     सुन्दरकाण्ड में ज्ञान, कर्म और भक्ति इन तीनों बातों का समन्वय दृष्टिगाोचर होता है। भक्त श्रेष्ठ श्री हनुमानजी के चरित्र पर यदि हम दृष्टिपात करेंगे तो इन तीनों गुणो का दर्शन उनके चरित्र में हमे दिखाई देता है। सुन्दरकाण्ड में मुख्य चरित्र श्री हुनमानजी का ही है। श्री हनुमानजी की सुन्दर लीला का चित्रण किया गया है। सुन्दरकाण्ड में निहित जो सुन्दर बातें है उनका पठन के साथ चिंतन, मनन करते हुए उन दिव्य गुणोंको आत्मसात कर जीवन विकास साधने का हर साधक को प्रयत्न करना चाहिए और तभी हमारा जीवन भी हमारे उपास्य देव महावीर श्रीहनुमानजी की भाँति सुन्दर व उच्चतम बन जाएगा। जीवन सुन्दर उच्चतम व यशस्वी बनाने के लिए तीन गुणोकी मुख्यतया आवष्यकता है :  प्रेम, ज्ञान व शक्ति.
         ''प्रेम'' यानी हृदय का विकास
         ''ज्ञान'' यानी बुध्दि का विकास
         ''शक्ति'' यानी शरीर का विकास
      हमने इससे पूर्व सुन्दरकाण्ड के प्रारंभ के चिंतन में सुन्दरता की कुछ व्याख्याएँ देखी कुछ और व्याख्याएँ हैं उनपर हम दृष्टिपात करेंगे।
     “Any thing is beautiful which has a special form” । 'वह वस्तु सुन्दर है जिसे वैिशष्टयपूर्ण आकार है। जीवन को एक वििशष्ट रुप व आकार देना चाहिए तभी जीवन सुन्दर बनेगा। केवल सुन्दरकाण्ड का पारायण करने से क्या होगा? पारायण करना चाहिए उसकी ना नहीं है परन्तु उसमें निहित सुन्दर बातों का चिंतन करते हुए जीवन को आकार तो देना चाहिए।
     सुन्दरता कब आती है? उसे एक आकार चाहिए। शरीर का आकार व्यवस्थित रहने के लिए कितने ही लोग खाने से परहेज (Dieting) करते है। छाती से पेट बडा हो तो नहीं चलता। पेट छाती से छोटा होना चाहिए। उसके लिए सभी के प्रयत्न चलते है। मर्यादा छूट गयी तो आकार बेढंगा बनता है। प्रत्येक व्यक्ति का उदर भगवान ने सुन्दर बनाया है। परन्तु उसमें विकृति आयी और वह बढने लगा तो डाँक्टर भी कहते हैं भाई! पेट फूलने लगा है। तबियत सँभालना, कसरत करो, घुमने जाओ, प्राणायाम करो पेट बडा नहीं होना चाहिए। उसी प्रकार मन बुध्दि के लिए भी लक्ष्मण्ा रेखा (मर्यादा) होनी चाहिए। यदि मन उसका उल्लंगन करें तो बुध्दि को नहीं चलाना चाहिए। परन्तु आज तो बुध्दि को जो निर्णय करने चाहिए वे निर्णय मन करता है और मन बुध्दि पर चढ बैठता है। हम लोग मनजीभाई जैसे बनकर मन को नहीं समझा सकते। मन मर्यादा छोडकर दौडता जाता है। इसी कारण भगवान ने गीता मे 'अघायु इंद्रियाराम:' कहा है। एक तो मन बुध्दि से बढचढ कर हुकूमत चलाता है इसलिए बुध्दि भी वैसा ही चलने लगती है। े मन की बुध्दि गुलाम होती है उसमें सौंदर्य नहीं होता। ऐसी गुलाम बुध्दि सुन्दर नहीं लगती। उसमें सौंदर्य नहीं होता।
     हमारे जीवन में बुध्दि इंग्लैन्ड के बादशहा के समान है। संसद (पार्लयामेन्ट) जो प्रस्ताव पारित करे उस पर बादशहा हस्ताक्षर करता है। उसके सिवा उसके पास दूसरा पर्याय ही नहीं है। हमारे जीवन में मन जो प्रस्ताव पारित करता है उस पर बुध्दि को हस्ताक्षर करना ही पडता है। कोई सुबह देर से उठा और कोई उससे पूछे 'क्यो भाई! देर से उठे? तो वह कहता है- देर से उठना चाहिए यह भगवान को भी मान्य है। उजाला हुए बिना उठना भगवान को मान्य नहीं है। नहीं तो भगवान सूर्योदय जल्दी नहीं करते?
     इस प्रकार मन बुध्दि पर चढकर बुध्दि को गुलाम बनाता है। बुध्दि सब कुछ बोलती है मगर आलस्य से भरी मन को गुलाम बनी बुध्दि बोलती है। निर्णय करने का काम बुध्दि का है। बुध्दि से उपर मन जाए तो योग्य आकार नहीं होता। जो लोग मन और बुध्दी को वििशष्ट आकार में रखते है उनका सौंदर्य बढता है। ऐसी बुध्दि चाहिए जो मन को लक्ष्मण रेखा को भी न लांघने दे।
     मन का काम विक्रेता (Salesman) के सरीखा है। प्रत्येक वस्तु अच्छी है ऐसा वह कहता है। इसकी बुनावट अच्छी है। यह टिकाऊ है। इसका मुल्य अधिक है। इसका रंग पक्का है। कभी फिका नहीं पडेगा। इस समय इसी का फैशन चल रहा है। आदि आदि। खराब कुछ है ही नहीं। प्रत्येक कपडा अच्छा। परन्तु कौनसा कपडा लेना कितना लेना लाभ किसमें है, जेब में पैसे है या नही? आदि देखकर निर्णय लेना यह ग्राहक का काम है। Salesman का नहीं । अत: बुध्दि के स्थान पर मन स्वयं निर्णय करता है। तब मन ने मर्यादा का त्याग किया है ऐसा कहते है। जिसके जीवन में ऐसा होता है उसका जीवन स्थिर नहीं है या सुन्दर नहीं है। मन नहीं लगता है इसलिए नहीं करते यह ठीक नहीं है। मन नहीं लगा फिर भी करना चाहिए। ऐसी मन को आदत लगानी चाहिए। आज तो इंद्रियाँ मन से कहती है और मन बुध्दि को निर्णय लेने को बाध्य करता है।
     उसी प्रकार जो बुध्दि में उतरता है उसे स्वीकार करने कि हिम्मत और शक्ति होनी चाहिए। मन के कहने के अनुसार दौडने की अपेक्षा बुध्दि में ही स्वतंत्र निर्णय लेने कि शक्ति होनी चाहिए। ऐसी बुध्दि नहीं होती उसका जीवन नष्ट हो जाता है। सर्कस मे सिंह को 'राजा' कहकर बुलाते हैं। खेल करते समय सुलगे हुए चक्रमेसे निकालनेके लिए हाथ में चाबूक लिया हूआ रिंग मास्टर हूक्म करता है 'राजा' इस चक्र मे से निकल जाओ! तुरन्त छलाँग लगाकर राजा चक्र के बीच में से निकल जाता है।  अरे! तू राजा है और तुझे दूसरा कोई हुक्म करता है? राजा हुक्म करता है या हुक्म का पालन करता है? हमारी बुध्दि का भी ऐसा ही हुआ है।
     बुध्दि की भी कोई मर्यादा है। और उसे पहचानना आना चाहिए। तथाकथित पढे हुए लोग कहेंगे कि 'भगवान  है ही ऐसा हमारी बुध्दि में उतरा तभी हम मानेंगे। 'परन्तु जिसने तुम्हारी बुध्दि निर्माण की वह तुम्हारी बुध्दि में कैसे उतरेगा? फिर भी उसका अस्तित्व है ही। जगत में ऐसी कितनी ही बातें हैं जिनके बुध्दि में न उतरने पर भी उन्हे मानना पडता है। 'Rice is boiled in paper box’ यह नहीं मान सकेंगे ऐसी बात है। फिर भी वह हकिकत है। बहने कहेंगी कि कागज की पेटी चुल्हे पर रखनेसे जल जाएगी परन्तु वह सत्य नहीं है। अपनी बुध्दि में नहीं उतरता ऐसी अनेक बातों का जगत में अस्तित्व है। मर्यादा छोडकर चलने वाली बुध्दि को षोभा नहीं है। हम कीर्ति या वित्त के लिए दौडनेवाले होने से बुध्दिवादी या बुध्दिजीवी हैं। वास्तव में जीवन बुध्दीनिष्ठ बनना चाहिए। बुध्दि में उतरने के बाद उसके अनुसार जो करता है उसे बुध्दीनिष्ठ कहते हैं।
     हम नित्य सुन्दरकाण्ड का पारायण करते हैं। उसमें ज्वलंत विचार है परन्तु उन सुन्दर विचारोंको हम उठाना ही नहीं चाहिते है। हम पढते हैं परन्तु उन विचारोंको समझनेका प्रयत्न ही नहीं करते। इसलिए हमारा मन बुध्दि व जीवन को आकार नहीं आता।
     हम तो मनौति करके भगवान से भी कहते हैं कि 'इतनी वस्तूएँ प्रथम दो, फिर सत्यनारायण कि पूजा करुँगा, अथवा यात्रा में आऊँगा। इसका अर्थ ही यह है कि हमारा कल्याण किसमे है यह समझने कि अक्ल हममें है। मनौति शब्द का अर्थ ही यह होता है कि 'प्रथम दो, बादमें देखूँगा। भगवान पर विष्वास करने की तैयारी ही नहीं। मनौति का सरल अर्थ यह हुआ कि 'आप पर विष्वास करने योग्य आप नहीं है।' पहले आप कुछ देंगे तो फिर मैं कुछ करुँगा। परन्तु मैं प्रभु का काम करुँगा तो उन्हे दिए बिना छुटकारा ही नहीं। इतना विष्वास हमारा नहीं है। सुदामा प्रभु का काम करते थे। वे भगवान के पास मिलने गये उन्होने उनसे कुछ माँगा नहीं फिर भी भगवान ने उन्हे संपूर्ण ऐष्वर्य प्रदान किया। भगवान भी कर्मरुपी पैसा पहले लेते हैं और बादमें उसके अनुसार फल देते है। वे इतने होिशयार हैं इसका हमें पता नहीं है।
     उपभोगाें के लिए भी मर्यादा होनी चाहिए तभी सुन्दरता आती है। विषयों की ओर झुकनेवाली बुध्दि का 'स्व' चला जाता है और षोभा भी चली जाती है। स्त्री और पुरुष दोनों को भी मर्यादा है। ये दोनों जब मर्यादा छोड देते है तब समाज नष्ट हो जाता है। दोनाें अपनी अपनी मर्यादा समझते हैं तभी दाम्पत्य जीवन सुखी होता है। संसार सुन्दर बनता है और खिलता है। जहाँ Special form है मर्यादा है वही सुन्दरता है। मर्यादा छोडकर बोलने चलने में मजा नहीं है।
     सागर भी अपनी मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता। इसीलिए तो 'दर्यालाल कि जय' कहकर उसका पूजन होता है। आज के धनवान लोग तीस तीस मंजिलवाले भवन सागर के किनारे बनाते हैं इसका कारण समुद्र मर्यादा नहीं छोडता यह है। भगवान राम को हम मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं क्योंकि वे मर्यादा का पालन करते हैं। श्री हनुमानजी भी अपनी मर्यादा का पालन करते हैं उसी प्रकार हम भी मर्यादा का पालन करते हुए मन व बुध्दि को भी मर्यादा में रखेंगे तभी उनकी षोभा है। अन्यथा वे जीवन बिगाड देते हैं। हमारा सौंदर्य उतना आकर्षक हो तभी वे भगवान को आकर्षित कर सकते हैं।
     “Any thing is beautiful which leads to desirable social effect” वह वस्तु सुन्दर है जिसके कारण इष्ट सामाजिक परिणाम निर्माण होता है। वह कलाकृति वह साहित्य वाङ्मय सुन्दर है जो इष्ट सामाजिक परिणाम निर्माण करती है। रामायण तुलसीदासजी व वाल्मीकिने लिखी। ज्ञानेष्वरी ज्ञानेष्वर महाराज ने लिखी इन सब को हम सुन्दर मानते हैं। वह विचार अच्छे हैं जो गिरे हुए व्यक्ति को खडा करते हैं।
     जीवन बदलना है तो किस रीति से बदलेंगे? लोगोंमे सौंदर्य, हिम्मत, षौर्य, सत्व, महत्वाकांक्षा, तेजस्विता, अस्मिता, भाव, प्रेम, औदार्य, निर्माण करके हमें सुन्दर बनना है और लोगोंको सुन्दर बनाना है। हमारे वर्तन, विचार, संसर्ग से समाजमें इस प्रकार का इष्ट परिणाम निर्माण होता होगा तो हमारा जीवन सुन्दर है। कारण यह गुण प्रभु को अच्छे लगते हैं इन सभी गुणोंका वर्णन सुन्दरकाण्ड में हुआ है।
     “Any thing is beautiful which is the work of genius.” सौंदर्य वस्तु वही है जिसमें प्रतिभा होती है। नैसर्गिक प्रतिभा मिली होती है वह भिन्न ओर स्वयं प्रतिभावान बनना भिन्न है। फूलों मे सुगन्ध है ही, सागर में गंभिरता है ही, परन्तु हमारे जीवन में ऐसे गुण विकसित करके प्रतिभा निर्माण करनी होती है।
     मनुष्य को जीवन सौंदर्य में प्रतिभावान बनना हो तो बुध्दी में नविन नविन उन्मेष आने चाहिए। बुध्दि में नविन नविन अंकुर निकलने चाहिए। इसलिए उनको निरन्तर तत्वज्ञान में डूबाकर आद्र रखना चाहिए। दार्शनिक विचारों की खुराक बुध्दि को मिलना चाहिए। हमारी बुध्दि विषयोंमे डूबी हुयी हैं। उसे तत्वज्ञान में डूबाया तो प्रतिभा खिलेगी नवरात्री में हमारे यहाँ द्वीदल धान्य फैलाकर उसे उगाया जाता है। उससे अंकूर निकलते हैं। जीवन में बुध्दि को हराभरा बनाकर उसमें अंकुर निकलवाने चाहिए।
     आज सर्वसामान्य लोगोंकी बुध्दि रोटी कमाने में ही प्रयुक्त होती है। आज के लिये कमाना, कल के लिए संग्रहित करना और भविष्य के लिए प्रबंन्ध कर रखना इसमें ही संपूर्ण जीवन समाप्त हो जाता है। इसीमें बुध्दि व्यय की जाती है। प्रतिभा कैसे निर्माण होगी? आज करोडों लोग जीवित हैं पर उनमें प्रतिभावान कितने हैं? श्रीमदाद्यशंकराचार्यजी कहते है ''जन्तुना नर जन्म दुर्लभतमम्।'' नरजन्म दुर्लभ है ऐसा क्यों कहा होगा? अरबों जीव है परन्तु जिसे जीवन को विकसित करने नहीं आता क्या वह नर कहा जा सकता है? केवल जीवन जीया यानी जीवन खिलाया ऐसा नहीं कहते। केवल जीना सरल है। हृदय चलानेवाला चलाता है। और रिपेअर करनेवाला रिपेअर करता है। इसमे लोग जीते रहते है। यह नर जन्म नहीं है। इस प्रकार के जीवन का कोई अर्थ नहीं है।
     तब प्रतिभावान कौन? जिस व्यक्ति ने अपने मन और बुध्दि को प्रतिभावान बनाया वह व्यक्ति प्रतिभावान है। मन प्रतिभावान बना है ऐसा कब कहा जाता है? विषयोंको देखनेपर विषयों की सौंदर्य का कद्र करनेवाला मन विषयाकांक्षी न बना तो वह मन प्रतिभावान है ऐसा कहा जाएगा। केवल विषयोंमे आसक्त होना अथवा विषयोंके प्रति तिरस्कार रखना ये दोनों बातें बेकार है सच्चा प्रतिभाशाली विषयोंका सौंदर्य देखकर उसकी कद्र करता है परन्तु स्वयं विषयाकांक्षी नहीं बनता। इस व्यक्ति ने सच्चा सौंदर्य संभाला है ऐसा कहा जाता है। यही सच्चा आध्यात्मिक कहलाता है। हम जब सुन्दरकाण्ड का पाठ करते हैं तब श्री हनुमानजी का चरित्र इसी प्रकार प्रतिभावान दृष्टिगोचर होता है। तभी श्री हनुमानजी के गुणो का वर्णन करते हुए वाल्मीकिजी लिखते है-
                 मेधावी वाक्पटु: प्राज्ञ: परचित्तोपलक्षक:।
                 धीरो यथोक्तवादी च एष दूतो विधीयते॥
     श्री हनुमानजी मेधावी यानी प्रतिभावान, वाक्पटु यानी समयानुसार उचित बात करने में चतुर, पाज्ञ यानी किसी भी बात को झट समझनेवाले, धीर यानी र्धर्यशाली हैं।
     सामान्य तौर पर हमारा जीवन एक तो वियोंमे ही लिपटकर समाप्त हो जाता है। अथवा विष्ायोंसे डरकर उनको तुच्छ समझकर त्यागी बनकर मनुष्य दूर भाग जाता है। परन्तु अहंकार के काबू में बुध्दि को न जाने देकर साथ रखकर काम करेंगे तो प्रभु भी हमारा सौंदर्य देखकर खुश होंगे। जीवन में श्री हनुमानजी की तरह आध्यात्मिक सुन्दरता आती है तब जीवन कृतज्ञ हुआ है ऐसा माना जाता है। श्री हनुमानजी के चरित्र का चिंतन करते हुए हमको प्रतिभावान बनने का प्रयत्न करना चाहिए तभी हमारा सौंदर्य खिलेगा। व जीवन कृतकृत्य बनेगा।
     “Any thing is beautiful which reveals the truth, the spirit of nature, the Ideal.” वह वस्तु सुन्दर है जिसमें सत्य, निसर्ग, तत्त्व और आदर्श का दर्शन होता है। जीवन का सत्य स्वरुप समझना चाहिए। दुर्बल मन से यह सत्य नहीं समझ सकते। इसलिए मन को शक्तिशाली, प्रगमणशील और संवेदनशील बनाना चाहिए। तभी प्रभु को जीवन सुन्दर लगेगा। क्योंकि भगवान राम कहते हैं 'निर्मल मन जन सो मोहि भावा।' इस प्रकार मन को बनाने का अभ्यास करना चाहिए।
     “Ideal of beauty is sanaty and tranquility. सौंदर्य का आदर्श यानी पवित्रता और षांती स्वास्थ्य। व्यक्ति का नैसर्गिक विकास तथा उत्कर्ष हुआ कि वह सुन्दर होता है सुन्दर लगता है। आदमी के विचार ही उसका जीवन है। नैसर्गिक कौन है? मानव (Human being) मगर हमारा जीवन कैसा है? पशुतुल्य जीवन (Animal life) यह सुन्दर जीवन नहीं कहलाता। जो तुम्हारा कुदरती जीवन नही वह पशु जीवन है। खाना, पीना और मौज मनाना यह पशु जीवन है। इसलिए सुन्दरकाण्ड में समुद्र ने रामजी से पशुजीवन जीने वाले जड बुध्दि के लोगोंके लिए कहा है, ढोल, गँवार, शुद्र, पशु  नारि.....।'
     मानव को कमसे कम मानव होना चाहिए। भगवान ने जीव से कहा- तू पृथ्वी पर जाना चाहता है तो जरुर जा। मगर तेरे में हिम्मत हो तो 'मै मनुष्य हूं' यह सिध्द करके दिखाना। 'नाहं पशु: नाहं पक्षी अहं मनुष्य:' यह तुम्हे सिध्द करना है यह भूलना मत। जीवन में कृतज्ञता (Gratefulness) मनुष्य का प्रथम लक्षण है।
     अंग्रेजी मे कहते है : That creation is beautiful which reaches the hight of its natural development. यानी वही सर्जन सुन्दर है जो नैसर्गिक विेकास कि उँचाई छूता है। कृतज्ञता, आकर्षकता यह सौंदर्य के गुण है। मन बुध्दि, संकल्प तथा विचार आकर्षक लगने चाहिए जिसके पास ऐसी आकर्षकता है वह सुन्दर है। यह सौंदर्य बनाना पडेगा। कृतज्ञता यानी किसीने हम पर उपकार किया हो उसे मानना चाहिए। किए हुए उपकार का और किए हुए प्रेम का स्मरण रखना ही कृतज्ञता है। भगवान राम भी तो हनुमानजी के प्रति अपनी कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहते है- हे हनुमान तेरे समान मेरा उपकारी देवता, मनुष्य अथवा मुनि अथवा कोई भी शरीरधारी नहीं है।
         सुनु कपि तोहि समान उपकारी । नहि कोउ सुर नर मुनि तनुधारी ॥ (सु. 32-5)
     राम तो भगवान थे फिर भी वे प्रेम और उपकार का स्मरण करते हैं इसलिए हमारे जीवन में भी कृतज्ञता, आकर्षकता यह गुण लाना पडेगा। हमारे उपास्य देव के इन दिव्य गुणों को हम हमारे जीवन में लाने का प्रयत्न करेंगे तभी हमारा जीवन सौंदर्य खिलेगा।
     Any thing is beautiful which excites emotion जो भावना की जागृति करता है वह सुन्दर है। मानव जीवन में जो भाव खडा करता है वह भगवान को सुन्दर लगता हैं। आचार्य हममें ऐसा भाव निर्माण करते हैं इसलिए वे पूज्य हैं और वे भगवान को सुन्दर लगते हैं।
     जगत व जगदीश के लिए जिसका अन्त:करण भाव भीना बनता है उसका जीवन सुन्दर हैं। जो जीवन भगवान को पसंद आये जैसे श्रीहनुमानजी हैं, विभीषणजी हैं, तुलसीदासजी हैं। हम भी ऐसा सुन्दर जीवन बनाएं कि जिसके कारण हम भगवान को सुन्दर लगेंगे।  भावशुण्य भगवान में भाव खडा करना है। भगवान जिसे कहते हैं 'योमद्भक्त: स मे प्रिय:' ऐसा जीवन हमको बनाने का प्रयत्न करना चाहिए।
     हम िशवलिंग पर पानी चढाते हैं। क्यों? निर्गुन निराकार िशवलिंग भावशुन्य है। उसे कोई भावना नही है। ऐसे भावशुन्य भगवान के जीवन में भाव निर्माण करना है। यह कितनी कठिन बात है। निर्विकार भगवान में विकार खडा करना है। भगवान को किसी के लिए प्रेम हो तो वह भी विकारी बन जाता है। जो भावशुन्य में भाव भरता है वह सुन्दर है। जैसे श्रीहनुमानजी ने रामजी के मन में अपने कृतत्त्वसे भाव निर्माण किया उसी प्रकार हमें भी श्री हनुमानजीका आदर्श सामने रखते हुए जीवन में भाव जीवनको पुष्ट करने का प्रयत्न करना चाहिए तो वह सुन्दर है।
     Any thing is beautiful which results from succesful exploitation of medium जो साधनयंत्र बनता है वह जीवन सुंन्दर। अर्जुन स्थ्तिप्रज्ञ नहीं था। मगर वह भगवान का साधनयंत्र बना। तभी गीता में 'पाण्डवाणां धनजय:' कहकर भगवान ने विभूति के रुप में  उसका वर्णन किया। तुम भगवान के साधनयंत्र बनोगे तो जीवन में सौंदर्य आएगा। श्री हनुमानजी भी भगवान राम के कार्य में साधनयंत्र बने इसलिए उनका जीवन सुन्दर है। इसीलिए तो श्री हनुमानजी रामजी को सबसे प्रिय है। गोस्वामीजीने श्री हनुमान चालीसा में लिखा है कि 'तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई।' यह भक्ति की उच्चतम अवस्था है। भगवान के मुख से भक्त के लिए तुम मुझे प्रिय हो यह उद्गार निकलना यह भक्ति का अंतिम फल है। संत तुलसीदासजी की भी यही इच्छा थी 'एक बार कहो तुलसी मेरा' भगवान! आप केवल एकबार कहो 'तू मेरा है' बस ।
     श्री हनुमानजी कि तरह हम भी जीवन में सौंदर्य की सभी व्याख्याएँ तथा गुणों को साकार करेंगे।  तो हमारा भी जीवन सुन्दर बनेगा। मानवी जीवन सुन्दर बनाना है। लोग कहते हैं भक्ति मार्ग सहज आसान है। इसका कारण बालक मंदिर में जाने वाले बालक को जैसे प्रथम मंदिर अच्छा लगता है ऐसी ही अवस्था में हम हैं। कोई भी मार्ग हो उसमें साधना आवष्यक है। मनुष्य शनै: शनै: उपर जाता है।  जब हम शनै: शनै: चिंतन मनन करते हुए जीवन को सुन्दर बनाने के लिए एक एक गुण जीवन में लाने का प्रयत्न करेंगे।
     मन बुध्दि और जीवन को सुन्दर बनाना है। हम भगवान से प्रार्थना करेंगे की भगवान! हमें ऐसा सुन्दर जीवन बनाना है उसमें आप सहायता दो। हम सुन्दर जीवन बनाने की अभिलाषा रखेंंगे, आकांक्षा रखेंगे और प्रयत्न करेंगे । इच्छा को प्रयत्नशीलता का सहारा होना चाहिए। भगवान! मै प्रयत्न करुँगा ही आप सहायक बनो बस यही मेरी प्रार्थना हैं। 
     शरीर भगवान का मंदिर है। उसे स्वच्छ रखना चाहिए। उसी प्रकार केवल शरीर की ओर न देखकर संपूर्ण जीवन विकसित करना है। गत जन्म में कमाया हुआ हम इस जन्म में ले आए हैं। उनको विकसित करते हुए अगले जन्म में ले जाना है। उसके लिए मानसिक बौध्दिक व आत्मिक सौंदर्य की ओर ध्यान देना है। महाराष्ट्र के संतो ने गाया है 'सुन्दर मी होणार' सुन्दर बनने की आकांक्षा रखनी चाहिए और जीवन को श्री हनुमानजी की तरह सुन्दर बनाना चाहिए तभी हम श्री हनुमानजी के सच्चे उपासक कहलाने के योग्य होंगे। श्री हनुमानजी की तरह मुझे सुन्दर होना है तथा सुन्दर बनकर भगवान का होना है।
सुन्दरकाण्ड के अन्तमें फलश्रुति बताते हुए गोस्वामीजी लिखते हैं-
    सकल सुमंगल दायक रघुनायक गुन गान ।
    सारद सुनहिं ते तरहिं भव सिन्धु बिना जलजान ॥
     भगवान श्री रामजी का चरित्र समस्त मंगलों को  देनेवाला है, और जो लोग इसका आदरपूर्वक पठन चिंतन एवं मनन करते हैं वे इस संसार समुद्रको बिना जहाज के ही पार कर लेते हैं। गोस्वामीजी ने आष्वासन देते हुए कहा है कि जिसके हृदय में भगवान राम तथा श्री हनुमानजीका यह संवाद आ जाएगा उसे भगवान श्री राम के चरणों की भक्ति अवष्य प्राप्त होगी ।
भगवान राम की यह कथा अत्यन्त सुन्दर है। सुन्दरता को सुन्दर करने वाली श्रीसीताजी तथा परम सुन्दर भगवान श्रीराम की उपलब्धी सुन्दरकाण्ड के द्वारा होती है। और सुन्दरकाण्ड का फल भी यही है-
         यह सम्वाद जासु उर आवा। रघुपति चरन भगति सोइ पावा॥ 5/33/4
     इस काण्ड में एक ओर यदि विभीषणजी को राज्य मिला तो दूसरी ओर हनुमानजी को भक्ति मिली।  इसका अभिप्राय है कि इसके द्वारा सकाम की कामना पूर्ण होती है तथा निष्काम को सेवा की प्राप्ति होती है। इसका अभिप्राय है कि जिस व्यक्ति को जो भी वस्तु चाहिए वह इस सुन्दरकाण्ड के माध्यम से प्राप्त कर सकता है। सुन्दरकाण्ड की इन सुन्दर बातों का चिंतन मनन करके सुन्दर विचारों का आश्रय लेकर अपने जीवन को सुन्दर व उच्चतम बनाने का संकल्प करें। सुन्दरकाण्ड के तत्व को प्रतिपादन करने में हो सकता है कही त्रुटि रह गयी हों तो कृपया क्षमा करें इसमें जो विचार आपको अच्छे लगे उनको आप ग्रहण कीजिए तथा त्रुटिपूर्ण विचारों को मेरी अपनी भूल समझकर क्षमा कीजिए। सुन्दरकाण्ड के विचारों को आत्मसात करने तथा आदर्श एवं उच्चतम जीवन तथा भक्तिपथ पर अग्रसर होने की शक्ति हनुमानजी सब को प्रदान करें, यही प्रभु चरणों में नम्र प्रार्थना ।

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